विनय-पत्रिका [३३] समरथ सुअन समीरके, रघुवीर-पियारे । मोपर कीवी तोहि जो करि लेहि भिया रे ॥१॥ तेरी महिमा ते चलें विचिनी चिया रे। अँधियारो मेरी चार क्यों, त्रिभुवन-उजियारे ॥२॥ केहि करनी जन जानिकै सनमान किया रे। केहि अघ औगुन आपने कर डारि दिया रे ॥३॥ खाई खोची माँगि मैं तेरो नाम लियारे । तेरे चल, चलि, आजु लौं जग जागि जियारे ॥४॥ जो तोलो होतो फिरौं मेरो हेतु हिया रे। तो क्यों बदन देखावतो कहि बचन इयारे ॥ ५॥ तोसो ग्यान-निधान को सरवग्य विया रे। हौं समुझत साई-द्रोहकी गति छार छिया रे ॥६॥ तेरे स्वामी राम से, खामिनी सिया रे। तहँ तुलसीके कौनको काको तकिया रे ॥ ७ ॥ भावार्थ हे सर्वशक्तिमान् पवनकुमार ! हे रामजीके प्यारे ! तुझे मुझपर जो कुछ करना हो सो भैया अभी कर ले ॥ १ ॥ तेरे प्रतापसे इमलीके चियें भी (रुपये-अशरफीकी जगह) चल सकते हैं; अर्थात् यदि तू चाहे तो मेरे-जैसे निकम्मोंकी भी गणना भक्तोंमे हो सकती है। फिर मेरे लिये, हे त्रिभुवन-उजागर ! इतना अँधेरा क्यों कर रक्खा है ? ॥ २ ॥ पहले मेरी कौन-सी अच्छी करनी जानकर तूने मुझे अपना दास समझा था तथा मेरा सम्मान किया था और अब किस पाप तथा अवगुणसे मुझे हाथसे फेंक दिया, अपनाकर भी
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