५२ विनय-पत्रिका अयोध्या सिंहासनपर विराजित हो शोभा पा रहे थे, वैसे ही तुम इस तुलसीदासकी मानसरूपी अयोध्यामे सदा विहार करते रहो ||५|| [२८] जयति वात-संजात, विख्यातविक्रम, वृहद्वाहु, वलविपुल, चालधिविसाला। जातरूपाचलाकारविग्रह, लसल्लोम विद्युल्लता ज्वालमाला ॥१॥ जयति वालार्कवर-वदन,पिंगल नयन, कपिश-कर्कश जटाजूटधारी विकट भृकुटी, वज्र दशन नख, वैरि-मदमत्तकुंजर-पुंज- कुंजरारी ॥२॥ जयति भीमाजुन-च्यालसूदन-गवहर, धनंजय-रथ-त्राण-केतू । भीष्म-द्रोण-कर्णादि-पालित, कालहकसुयोधन-चमू-निधन हेतु॥३॥ जयति गतराजदातार, हतार संसार-संकट, दनुज-दर्पहारी। ईति-अति-भीति-ग्रह प्रेत-चौरानल-व्याधिवाधा-शमन-घोरमा[४ जयति निगमागम व्याकरण करणलिपि, काव्यकौतुक कला- कोटि-सिंघो। सामगायक, भक्त-कामदायक,वामदेव श्रीराम-प्रिय-प्रेम बंधो॥५॥ जयति धर्माशु-संदग्ध-संपाति-नवपक्ष-लोचन-दिव्य-देहदाता । कालकलि-पापसंताप-संकुल सदा,प्रणततुलसीदास तात-माता॥६॥ ____भावार्थ-हे हनुमानजी ! तुम्हारी जय हो । तुम पानसे उत्पन्न हुए हो, तुम्हारा पराक्रम प्रसिद्ध है। तुम्हारी भुजाएँ बडी विशाल हैं, तुम्हारा बल अपार है। तुम्हारी पूँछ बडी लबी है। तुम्हारा शरीर सुमेरु पर्वतके समान विशाल एव तेजखी है। तुम्हारी रोमावली बिजलीकी रेखा अथवा ज्वालाओंकी मालाके समान जगमगा रही है ॥ १ ॥ तुम्हारी जय हो । तुम्हारा मुख उदयकालीन सूर्यके समान
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