विनय-पत्रिका ४७२ की। महर्षि अगस्त्यजीन राम-नामका स्मरण कर विन्ध्याचलके मस्तकपर हाथ रखकर कहा कि 'देख, जबतक मै यहाँ न लौट आऊँ तबतक तू यहाँ ऐसा ही पड़ारह ।' अगस्त्यजी फिर न लौटे और वह पर्वत ज्यों-का-त्यो आजतक पड़ा है। यह है श्रीराम-नामकी महिमा । २५७-दंडक पुलुमि पुनीत भई- कथा है कि एक बार बड़ा भारी दुर्भिक्ष पडा । सब ऋषिगण अपने-अपने आश्रमोंको छोड़कर गौतम ऋषिके आश्रमपर जा ठहरे । पीछे जब दुर्भिक्ष मिट गया तो वे गौतम ऋषिसे विदा मांगने के लिये गये। ऋपिने उनको उसी आश्रममें रहनेके लिये कहा तथा अन्यत्र जानेके लिये मना किया। तब उन ऋपियोंने एक मायाकी गो रचकर गौतम-ऋषिके खेतमे खड़ी कर दी। ऋपि जब उसे हॉकनेके लिये गये तो वह गिर पड़ी और मर गयी। इसपर वे सारे ऋषि उनके ऊपर गोहत्याका दोष मढ़कर जाने लगे। गौतम ऋषिने योगवलसे जब उनकी इस मायाको जाना तब क्रोधित होकर शाप दे दिया कि तुम जहाँ जाना चाहते हो वह देश अपवित्र-नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा। तभीसे वह दण्डकवनके नामसे प्रसिद्ध हुआ और वहाँ कभी कोई लता-वृक्ष नहीं उगते थे, सदा वह प्रदेश वीरान रहता था । भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके चरण धरते ही वह उजाड प्रदेश पवित्र और हरा-भरा हो गया।
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