विनय-पत्रिका ४७० भगवान्ने भीमके द्वारा अश्वत्थामा नामक पापीको गरवा डाला। द्रोणाचार्यके पुत्रका भी अश्वत्यामा नाम था और यह उनको यही प्यारे थे। जब 'अप्रत्यागा मारा गया' या आगाज द्रोणाचार्यक कानों में पहुंची तो उन्होंने धर्मगन युधिष्ठिरमे पूछा कि कौन अखत्यामा मारा गया ।' युधिष्ठिरने कहा-'अश्वत्यामा हतो नरो या कुलगे वा ।' अर्थात् अश्वत्यामा मनुष्य मारा गया या छायी । द्रोणाचार्य 'या हाथी' (वा कुञ्जरोवा ) इस अगको न सुन सके । राजनीतिका पालन करते हुए धर्मराजने सत्यकी रक्षा करनी चाही, पर वह न हो सका, असत्य बोलनेका कलक उनके जीवनपर लग ही गया । अस्तु, पुत्रमरण सुनकर यों ही द्रोणाचार्य मूर्छिन-से हुए त्यों ही नृश्युम्नन उनका मस्तक काट लिया। 'नरो वा कुजरो वा' तभीने पाहावतके रूपमें प्रयुक्त होने लगा। २३९-ब्रह्म-विसिख- अश्वत्यामाने पाण्डवोंको निवेश करनेके लिये परीक्षित्को गर्भमें ही ब्रह्मास्त्रसे मारना चाहा था, परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने चक्रसुदर्शनके द्वारा उसे वीचमें ही व्यर्थ करके गर्भस्थ शिशुकी रक्षा की थी। फेन मरयो- नमुचि नामका एक महाप्रतापी दैत्य था । उसने घोर तपस्या करके ब्रह्माजीसे यह वरदान प्राप्त किया था कि मैं न किसी अस- शस्त्रसे मरूँ, न किसी शुष्क या आई पदार्थसे मरूँ।' जब देवासुर-सग्राम छिडा तो देवतालोग इसके पराक्रमके आगे त्राहि-त्राहि करने लगे । इन्द्रका वन भी इसका बाल बाँका न कर सका । तब
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