विनय-पत्रिका ४६२ आज्ञासे लौटकर महाराज अम्बरीषके चरणोंपर आ गिरे । राजानेचक्रको स्तवन करके शान्त किया। इसके बाद विष्णुभगवान्ने प्रकट होकर दुर्वासा ऋषिसे कहा कि आपने हमारे भक्तको जो शाप दिया है उसे मैं ग्रहण करता हूँ। उनके बदलेमें मैं दस वार शरीर धारण करूंगा। उग्रसेन- कंसके पिताका नाम उग्रसेन था। कंस अपने पिताको कैद करके आप राजगद्दीपर बैठा था। उसके अत्याचारोंसे प्रजा त्राहि-त्राहि करती थी । भगवान् कृष्णने कसको मारकर उग्रसेनको पुनः गद्दीपर बैठाया और आप स्वयं उनके द्वारपाल बने । ९९-सुदामा- सुदामाकी कथा प्रसिद्ध ही है। यह श्रीकृष्णजीके सहपाठी मित्र थे । विद्याध्ययनके अनन्तर यह अत्यन्त दरिद्र हो गये। अपनी स्त्रीके कहने-सुननेपर यह भगवान् श्रीकृष्णसे मिलनेके लिये द्वारका गये । यह इतने दरिद्र थे कि अपने मित्रसे मिलनेके लिये चार मुट्ठी चावल भेंट ले गये थे । भगवान्ने इनका बड़ा ही सम्मान किया और चार मुट्ठी चावलके बदलेमें इन्हें पूर्ण समृद्धिशाली बना दिया । १०६-केवट- जब भगवान् श्रीरामचन्द्रजी सीता और लक्ष्मणके साथ वन जाते समय गङ्गाके किनारे पहुँचे और पार जानेके लिये केवटसे नाव माँगी तो उसने प्रेमसे गद्गद होकर कहा-'हे स्वामिन् ! मैं आपके ममेको जानता हूँ। आपके चरणोंको छु करके पत्थर सुन्दर स्त्रीके रूपमें परिणत हो गया । मेरी नाव तो काठकी है, कहीं यह भी
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४५७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।