पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४५४

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४५९ परिशिष्ट 'उससे कहा कि तुम यह घोर कर्म जिनके लिये कर रहे हो, वह तुम्हारे इस पापकर्मके भागी न होंगे। रत्नाकर इसपर अपने कुटुम्बके लोगोंसे इस विषयमें पूछनेके लिये गया। जब उसके परिवारके लोगोंने साफ-साफ कह दिया कि हम तुम्हारे पापके भागी नहीं हैं तो वह नारदजीके पास आकर उनके पैरोंमें गिर पड़ा और क्षमा-याचना करते हुए पूछा कि 'मेरा अब कैसे उद्धार होगा, नारदजीने उसे 'राम' मन्त्रका उपदेश दिया। उसने कहा कि मै राम-मन्त्र नहीं जप सकता, तब देवर्षिने उससे रामका उलटा 'मरा-मरा' जपनेको कहा। इसीके प्रतापसे पीछे वही व्याध 'वाल्मीकि मुनिके नामसे प्रसिद्ध हुआ। ९७-सुरपति कुरुराज, वलिसो........"वैर विसहते- सुरपति- ' एक बार देवर्षि नारदजी वर्गसे पारिजात-पुष्प लाकर रुक्मिणी- को दे गये । सत्यभामाको उसके लेनेकी इच्छा हुई । परन्तु सौत होनेके कारण रुक्मिणीसे वह मॉग नहीं सकती थी और रुक्मिणीके पास वैसे पुष्पका होना भी उससे देखा नहीं जाता था, इसलिये उसने पारिजात-पुष्पके लिये मान किया । यद्यपि उसका यह हठ और मान ईर्ष्यायुक्त होनेके कारण अनुचित था, परन्तु भगवान्ने भतिवश उसपर कुछ ध्यान नहीं दिया और खर्गमें जाकर इन्द्रसे लड़कर पारिजात-वृक्ष ही उखाड़ लाये और सत्यभामाके भवनके सामने बगीचेमें उसे लगा दिया। पॉचों भाई पाण्डवोंका मिलकर द्रौपदीको रख लेना, कौरवोंके