- विनय-पत्रिका ४५६ डॉट-फटकार बताते, राजाकी गोदसे उतार दिया । वह रोता हुआ अपनी मॉके पास गया। उसकी मॉने दीनबन्धु अशरणशरण भगवान्के गुणोंका वर्णन कर ध्रुवके मनको भगवानकी ओर लगा दिया । पीछे बालक ध्रुवने बाल्य-जीवनमें ही घोर तपस्या कर प्रभुको प्रसन्न कर राज्य और परमपद प्राप्त किया। ८७-रिपुराहु- जब समुद्र-मन्थनके समय समुद्रसे अमृत निकला तो दैत्य और देवता उसके लिये आपसमें लड़ने लगे। विष्णुभगवान्ने मोहिनी-रूप धारण कर अमृतके घड़ेको अपने हाथमें ले लिया। दैत्य उनके रूपपर मोहित हो गये, उन्हें अमृतका ध्यान ही नहीं रहा । एक ओर देवता और दूसरी ओर दैत्य बैठ गये। अमृतका बॉटा जाना देवताओंकी पंक्तिसे प्रारम्भ हुआ । राहु नामका दैत्य विष्णुभगवान्की इस लीलाको समझ गया । वह वेष बदलकर सूर्य-चन्द्रमाके बीच देवताओंमें आकर बैठ गया। मोहिनीने उसे भी अमृत पिला दिया, वह अमर हो गया, परन्तु सूर्य और चन्द्रमाके संकेतसे भगवान्को जब यह मालूम हुआ तो उन्होंने अपने चक्रसे राहुके सिरको धड़से अलग कर दिया। फिर सिर राहु हो गया और धड़ केतु । उसी पुराने वैरसे राहु ग्रहणके द्वारा चन्द्र और सूर्यको कष्ट देता है। ९३-मृगराज-मनुज- प्रह्लादकी कथा प्रसिद्ध ही है। हिरण्यकशिपु नामका एक महा- प्रतापी दैत्य हो गया है। उसने घोर तप करके ब्रह्मासे यह वरदान माँगा था कि मैं न नरसे मरूँ न पशुसे, न दिनमें मरूँ न रातमें, न अनसे मरूँ न शस्त्रसे, न घरमें माँ न बाहर । यह वर प्राप्त कर
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