४४९ परिशिष्ट दरबारमें आये और महाराजसे अपने यज्ञकी रक्षाके लिये श्रीराम- लक्ष्मणको मॉगा । महाराज अपने प्राणप्रिय पुत्रोंको पहले तो अलग करना नहीं चाहते थे, परन्तु महामुनि महर्षि वशिष्ठकी अनुमतिसे उन्होंने श्रीराम-लक्ष्मणको विश्वामित्र मुनिके सुपुर्द किया। श्रीरामचन्द्र- जीने लक्ष्मणको साथ लेकर मुनिके यज्ञकी रक्षा की और ताड़का- सुबाहु प्रभृति राक्षसोंको, जो यज्ञ-ध्वंस किया करते थे, मार डाला। मुनिवधू-पापहारी- गौतम ऋषिकी पत्नी अहल्या परम रूपवती थी । उसके सौन्दर्यको देखकर इन्द्रका मन मोहित हो गया और एक दिन सायंकाल जब गौतम ऋषि सन्ध्या-वन्दनके निमित्त बाहर गये थे, उसी समय इन्द्र गौतमका रूप धारणकर अहल्याके पास गया और उससे अपनी अभिलाषा प्रकट की। कुसमय समझकर पहले तो उसने अस्वीकार किया, पर पीछे पति-आज्ञा समझकर उसने स्वीकार कर लिया । इतनेमें ही गौतम ऋषि आ गये। उन्होंने योगदृष्टिसे सारा रहस्य जान लिया और क्रोधित होकर इन्द्रको शाप दिया कि 'जा तेरे सहस्र भग हो जाय ।' तथा अहल्याको शाप दिया कि 'तू पत्थरकी हो जा।' पीछे जब उनका क्रोध शान्त हुआ तो उन्होंने दोनोंके शापका इस प्रकार प्रतिकार बतलाया कि श्रीराम- चन्द्रजीके चरण-स्पर्शसे अहल्याका उद्धार होगा और जब श्रीरामचन्द्रजी शिवके धनुषको तोडेगे उस समय इन्द्रके सहस्र भग सहस्र नेत्रोंके रूपमें परिणत हो जायेंगे। काक-करतूति-फलदानि- एक दिन चित्रकूटमें सीताजीके अपूर्व सौन्दर्यपर इन्द्रका पुत्र वि०प० २९-
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