विनय-पत्रिका ४३२ दसरथके ! समरथ तुही, त्रिभुवन जसु गायो। तुलसीनमतअवलोकिये याँह-चोलबलिदै विरुदावलीघुलायो॥६॥ मावार्थ-मैंने क्या नहीं किया ? मैं कहाँ नहीं गया ? कौन-सी जगह जानेको वची ? और किसके आगे सिर नहीं झुकाया ? किन्तु हे श्रीरामजी ! जबतक आपका दास नहीं हुआ, तबतक जगतम बार-बार जन्म ले-लेकर मैने दसों दिशाओंमें केवल दुःख ही पाया (कहीं खप्नमें भी सुख नही मिला ) ॥१॥ ( आपका खास दास होनेपर भी मैं भ्रमवश विषयोंसे सुख मिलनेकी) आशाके वशमे हो अशुद्ध हृदयके मालिकोंके सामने अपनेको जताता (समर्पण करता) फिरा और बार-बार द्वार-द्वारपर अपनी गरीबी सुनाकर मुँह वाया, पर उसमें खाक भी न पडी। ( सुख-शान्तिका कहीं आभास भी नहीं मिला ) ॥ २॥ भोजन और वस्त्र के विना पागलकी तरह जहाँ-तहाँ दौड़ता फिरा । प्राणोंसे प्यारी मान-प्रतिष्ठाको त्याग कर दुष्टोंके सामने क्षण-क्षणमें अपना यह (खाली) पेट खोलकर दिखाया ॥ ३॥ हे नाय ! ( विषयोंके ) लोभके मारे बहुत ही लालच किया, पर कहीं कुछ भी हाथ नहीं लगा। मैं सच कहता हूँ, ऐसा कौन-सा नाच है जो नीच लोभने मुझ निर्लजको न नचाया हो ॥४॥ कान, आँख और मनको भी अपने-अपने मार्गमें लगाया, परन्तु सभी जगह उलटा पतित ही होता गया। (सब राजे-महाराजे भी जॉच लिये । कहीं किसी विषयमें किसीके द्वारा भी सुख-शान्ति नहीं मिली, तब ) सिर पीटकर हृदयमें हार मान गया-निराश हो गया, इसीसे अब घबराकर आपके चरणोंकी शरण तककर आया हूँ, क्योंकि इसीमें मुझे अपना हित दिखायी देता है ॥ ५॥ हे दशरथकुमार! आप
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