पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४२६

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विनय-पत्रिका कोई सीमा ही न रहती।) हे नाय ! आपके नामकी महिमा तथा शीलने ( मेरी नालायकी होनेपर भी ) मेरा कल्याण किया, यह देखकर अब में मन-ही-मन सकुचाता हूँ (इसलिये कि मैंने कृयापात्र होने योग्य तो एक भी कार्य नहीं किया, फिर भी मुझ कृतघ्नपर प्रमुकी ऐसी कृपा है) और आपकी शरणागतवत्सलताकी प्रशंसा करता हूँ॥४॥ [२७६] ' कहा न कियो, कहाँन गयो, सीस काहि न नायो ? राम, रावरे दिन भये जन जनमि-जनमि जग दुख दसह दिसि पायो॥१॥ आस-विवस खास दाल है नीच प्रभुनि जनायो। . .हाहा करि दीनता कही द्वारद्वार चार-चार, परीन छार, मुह वायो॥२॥ असन-चसन विनु वावरो जह-तहँ उठि धायो।

  • महिमामान प्रिय प्रानते तजि खोलि खलनि आगे, खिनु खिनु

पेट खलायो॥३॥ '.. नाथ ! हाथ कछु नहि लग्यो, लालच ललचायो। साँच कहाँ नाच कोनसो, जो न मोहि लोभ लघु हो निरलज नचायो॥४॥ श्रवन नयन-भगमनलगे, सब थल पतितायो। . मूड मारि, हिय हारिक, हित हेरि हहरि अब चरन-सरन तकि आयो॥ ५॥ आप