विनय-पत्रिका ४२८ [२७३1 तुम तजि हो कासों कहौं, और को हितु मेरे ? दीनबंधु ! सेवक, सखा, आरत, अनाथपर सहज छोह केहि केरे॥१॥ बहुत पतित भवनिधि तरे विनु तरि, विनु बेरे। कृपा-कोप-सतिभायह,धोखेहु-तिरछेह, राम!तिहारेहि हेरे॥२॥ जो चितवनि सौंधी लगै, चितइये सवेरे। तुलसिदास अपनाइये, कीजै न ढील, अव जिवन-अवधि . . . अति नेरे ॥ ३॥ भावार्थ-हे नाथ ! आपको छोड़कर मैं और किससे कहूँ' मेरा हितू और कौन है ? हे दीनबन्धो ! ( आपके सिवा ) सेवकपर, मित्रपर, दुखियापर और अनाथपर खभावसे ही (और) किसकी कृपा है ? ॥१॥ (आपकी नजरसे ही) बहुत-से पापी इस संसार- सागरसे बिना ही नाव और वेडेके तर गये। हे रामजी! आपने कृपासे या क्रोधसे, सच्चे भावसे या धोखेसे अथवा तिरछी दृष्टिसे ही एक बार उनकी ओर देख भर लिया था ॥ २ ॥ इन दृष्टिमि जो आपको अच्छी लगे, उसी दृष्टिसे जल्दी ( मेरी ओर ) देख लीजिये, (बस, मेरा काम तो आपके देखते ही बन जायगा)। (बात यह है कि ) तुलसीदासको अब अपना लीजिये, इसमें देर न कीजिये, क्योंकि अब जीवनका अन्त बहुत ही समीप आ गया है ॥ ३॥ [२७४ ] जाउँ कहाँ, ठौर है कहाँ देव ! दुखित-दीनको ? को कृपालु स्वामी-सारिखो, राखैः सरनागत सब अँग बल- बिहीनको ॥१॥.
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४२३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।