पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४२२

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५२७ विनय-पत्रिका भावार्थ-हे श्रीरामजी! आप मुझपर मन मैला न कीजिये, मेरी ओरसे अपनी ( कृपाकी) नजर न फिराइये ( मुझको दोषी समर्शकर न तो क्रोध कीजिये और न अपनी कृपादृष्टि ही हटाइये)। हे नाथ ! सुनिये, इस लोक और परलोकमें आपको छोडकर मेरा कल्याण करनेवाला कोई दूसरा नहीं है ॥ १॥ मुझे गुणहीन, नालायक, आलसी, नीच अथवा दरिद्र और निकम्मा समझकर (जगत्के) सार्थक संगियोंने तिजारीके टोटकेकी तरह छोड़ दिया और फिर भूलकर भी पलटकर मुझे नहीं देखा । (खार्थ छूटते ही ऐसा छोड़ दिया कि फिर कभी यादतक नहीं किया ) ॥२॥ मुझे भक्तिहीन वेदोक्त मार्गसे बाहर एवं कलियुगके पापोंसे घिरा हुआ देखकर, हे नाथ! देवताओंने भी छोड़ दिया। इसमें उनका कोई अन्याय भी नहीं है, क्योंकि मैं सभीका अपराधी हूँ॥३॥ मै तो बस, आपके नामकी ओट लेकर पेट भर रहा हूँ, इतनेपर भी आपका दास कहलाता हूँ और यह बात सारा संसार जान गया है! अब आप ही विचार कीजिये कि संसार बड़ा है या वेद ! वेदोंकी विधिको देखते तो मैं आपका दास नहीं हूँ, परन्तु जब संसार मुझको आपका दास मानता और कहता है, तब आपको भी यही खीकार कर लेना चाहिये ॥४॥ तुलसीका भला तो जब कभी होगा. तब आपके ही द्वारा होगा। ( आखिर जब आपको मेरा कल्याण करना ही पड़ेगा तो शीघ्र ही कर देना उत्तम है ) मैं आपकी बलैया लेता हूँ, यदि आप देर करेंगे, तो यह गरीब दिन-पर- दिन बिगड़ता ही जायगा । (तब सुधारने में भी अधिक कष्ट होगा) इसलिये मुझे शीघ्र ही अपना लीजिये ॥ ५॥