पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४२१

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विनय-पत्रिका ४२६ शील और सरल चित्तसे बटरों और केवटको अपना मित्र बनाया था, मेरे साथ भी उसी स्वभावके अनुसार बर्ताव कीजिये ॥३॥ यद्यपि में अपराधी हूँ, पर हूँ तो आपका ही। इसलिये तुलसीको आप न मुलाइये। (अपना) टूटा हुआ भी हाथ गले वध जाता है और फूटी हुई ऑखमें भी जब दर्द होता है, तब उसके अच्छे करानेकी चेष्टा की ही जाती है। (इसी प्रकार में भी यद्यपि टूटी बोह और झ्टी ऑखके समान किसी कामका नहीं हूँ तयापि आपका ही है, इसलिये आप मुझे कैसे छोड़ सकते हैं ? ) ॥४॥ [२७२] तुम जनि मन मैलो करो, लोचन जनि फेरो। सुनहु राम ! विनु रावरे लोकहु परलोकहु कोउ न कहूँ _ हितु मेरो॥१॥ अगुन-अलायक-आलसी-जानि अधम अनेरो। खारथके साथिन्ह तज्यो तिजराको सो टोटका औचट उलटि न हेरो॥२॥ भगतिहीन, वेद-चाहिरो लखि कलिमल घेरो। देवनिह देव ! परिहर यो, अन्याव न तिनको, हो अपराधी सव केरो॥३॥ नामकी ओट पेट भरत हौं, पै कहावत चेरो। जगत-विदित बात है परी, समुझिये धौं अपने, लोक कि लैहै जब-तब तुम्हहिं . ते तुलसीको भलेरो। वेद बड़ेरो॥४॥ दिन-इ-दिन देव बिगरि है, बलि जाउँ, विलंब किये, अपनाइये सवेये ॥५॥ "दीन