४२४ विनय-पत्रिका [२७०] कबहुँ कृपा करि रघुवीर ! मोह चितैहो । भलो-चुरो जन आपनो, जिय जानि दयानिधि ! अवगुन अमित वितहो॥१॥ जनम जनम हो मन जित्यो, अव मोहि जितहो। ही सनाथ ही सही, तुमह अनाथपति, जो लघुतहि न भितहो ॥२॥ विनय करौं अपभयह ते, तुम्ह परम हितै हो। तुलसिदास कासों कहै, तुमही सव मेरे, प्रभु-गुरु, भातु- पित हो॥३॥ भावार्थ-हे रघुवीर ! कभी कृपाकर मेरी ओर भी देखेंगे ? हे दयानिधान ! भला-बुरा जो कुछ भी हूँ, आपका दास हूँ, अपने मनमें इस बातको समझकर क्या मेरे अपार अवगुणोंका अन्त कर देंगे ( अपनी दयासे मेरे सब पापोंका नाश कर मुझे अपना लेंगे!)॥१॥ (अबसे पूर्व) प्रत्येक जन्ममें यह मन मुझे जीतता चला आया है ( मैं इससे हारकर विषयों में फंसता रहा हूँ), इस बार क्या आप मुझे इससे जिता देंगे (क्या यह मेरे वश होकर केवल आपके चरणोंमे लग जायगा ?) (तब ) मैं तो सनाथ हो ही जाऊँगा; किन्तु आप भी यदि मेरी क्षुद्रतासे नहीं डरेगे तो 'अनाथ-पति' पुकारे जाने लगेंगे ( मेरी नीचतापर ध्यान न देकर मुझे अपना लेंगे तो आपका अनाथ-नाथ विरद भी सार्थक हो जायगा ) ॥ २॥ मैं अपने ही डरके मारे आपसे यों विनय कर रहा हूँ। आप तो मेरे परम हितू हैं ! ( परन्तु नाथ | ) यह तुलसीदास
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