विनय-पत्रिका ४१८ (आपके प्रेमके लिये ) रुचि है और मुंहसे भी कहता हूँ कि मैं श्रीसीतानाथजीका सेवक हूँ, किन्तु समझमें नहीं आता कि किस दुर्भाग्यके कारण नाथके साथ मेरा सर्वश्रेष्ठ सम्बन्ध और प्रेम नहीं होता ॥ १ ॥ मैं पानी चाहता हूँ तो आग मिलती है और इसी प्रकार अमृतका जहर बन जाता है (शान्तिके बदले अशान्तिको जलन मिलती है और अमृतरूपी सत्कर्म, अभिमानरूपी विष पैदा कर देते हैं)। संतोंने कलियुगकी जो कुटिल चालें कही हैं वे सब ठीक हैं। मुझे सूर्य और रात्रिका कुछ भी ज्ञान नहीं है। ( अर्थात् मैं ज्ञान और अज्ञानको यथार्थरूपसे नहीं पहचान सकता)॥२॥ कलियुग मुझे अंधा समझकर वनकी सिंहनीके घीका अञ्जन लगाने- को कहता है, जब मैं यह विकारभरा उपचार सुनकर उसपर विचार करता हूँ कि मुझे उसका घी कैसे मिले ? (अज्ञानरूपी वनमें वासनारूपी सिंहनी रहती है। विषय उसका धी है । वह तो समीप जाते ही खा जायगी । विषयों में फंसे हुए जीवको ज्ञानरूपी नेत्र कैसे मिल सकते हैं ? ) तब वह मेरे हृदयके बुद्धि-बलको हर लेता है ॥३॥ (बुद्धि-बलके नष्ट हो जानेसे मुझे कलियुगका बताया हुआ उपचार यानी विषय-भोग अच्छा लगता है, और मैं उसीमें लग जाता हूँ। इसी विघ्नके कारण मैं आपके साथ सर्वश्रेष्ठ सम्बन्ध और प्रेम नहीं कर पाता) आपसे कुछ कहना है, पर उसे कहते सकोच हो रहा है कि कहीं मेरी बात फिर फीकी न पड़ जाय ( खाली न चली जाय ) इससे मैं आपकी बलैया लेता हूँ, (बात यह है कि जरा अपने ) पास बुलाकर इसे ( कलियुगको ) रोक दीजिये, जिससे यह तुलसी-सरीखे जड़ जीवोंका खयाल छोड दे।
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४१३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।