विनय-पत्रिका ४०२ हे दयालु ! मैं बलैया लेता हूँ, इस तुलसीदासको वही महान् बल दीजिये, जिससे आपके नामकेसाथ इस दीनका प्रेम सदा निभ जाय॥४॥ [२५६] कहे विनु रहो न परत, कहे राम! रस न रहत। तुमसे सुसाहिवकी ओट जन खोटो-खरो कालकी, करमकी कुलाँसति सहत ॥ १॥ करत विचार सार पैयत न कहूँ कछु, सकल घड़ाई सब कहाँ ते लहत ? नाथकी महिमा सुनि, समुझि आपनी ओर, हेरि हारि कै हहरि हृदय दहत ॥ २॥ सखा न, सुसेवक न, सुतिय न, प्रभु आप, माय-बाप तुही साँचो तुलसी कहत । मेरी तो थोरी है, सुधरैगी विगरियो, बलि, राम ! रावरी सौं, रही रावरी चहत ॥३॥ भावार्थ-हे श्रीरामजी! कहे बिना तो रहा नहीं जाता और कह देनेपर कुछ रस (मजा ) नहीं रह जाता । (बात यह है कि) आप-सरीखे श्रेष्ठ खामीका आश्रय पाकर भी मैं आपका बुरा या भला सेवक काल और कर्मके कारण असह्य दुःख भोग रहा हूँ ॥१॥ (व्याध-निपाद आदिके बडण्यनपर ) विचार करता हूँ, पर कहीं कुछ भी रहस्य नहीं मिलता कि इन सब लोगोंने कहाँसे बडप्पन प्राप्त किया ? (सुना जाता है, आपने ही इनको दीन जानकर अपना लिया, जिससे ये सब महान् पूज्य हो गये ) आपकी ( ऐसी) महिमा सुन- समझकर जब अपनी ढमाकी ओर देखता हूँ तो निराश हो जाता हूँ और
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