विनय-पत्रिका जिन्हके हिये-सुथरु राम-प्रेम-सुरतरु, लसत सरस सुख फुलत फरत ॥१॥ आप माने खामी के सखा सुभाइ भाइ, पति, ते सनेह-सावधान रहत डरत । साहिब-सेवक-रीति, प्रीति-परिमिति, नीति, नेमको निवाह एक टेक न टरत ॥२॥ सुक-सनकादि, प्रहलाद-नारदादि कहै, रामकी भगति बड़ी विरति-निरत। जाने विनु भगति न, जानियो तिहारे हाथ, समुझि सयाने नाथ ! पगनि परत ॥३॥ छ-मत विमत, न पुरान मत एक मत, नेति-नेति-नेति नित निगम करत । औरनकी कहा चली ? एकै वात भले भली, राम नाम लिये तुलसी हू से तरत ॥४॥ भावार्थ-हे रामजी! आपके खभाव, गुण, शीलकी महिमा और प्रभावको श्रीशिवजी, हनूमान्जी,लक्ष्मणजी और भरतजीनेही (तत्त्वसे) जाना है, (इसीसे ) उनके हृदयरूपी सुन्दर थामलेमें आपके प्रेमका कल्पवृक्ष सुशोभित हो रहा है, जिसमें परम सुखरूपी सरस फूल-फल फूलते और फलते हैं । ( जो भगवान्के गुण-शीलकी महिमा जान लेता है उसका हृदय भगवत्-प्रेमसे ही भर जाता है। और जिस हृदयमें भगवत्प्रेम भरा है, उसी परमानन्द निवास करता है) ॥१॥आपअपने खभावके वश होकर शिवजीको खामी, हनूमान्जीका मित्र और लक्ष्मण तथा भरतको अपना भाई मानते हैं और वे सब आपको अपना मालिक मानते हैं, प्रेममें सदा सावधान रहते हैं और
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