३८८ विनय-पत्रिका हृदयके ( तीनों ) ताप शान्त हो जायेंगे। राम-नामके परायण हो और राम-नामहीका कथन किया कर । ( इस प्रकार नामकी शरणागति ) कुटिल कलियुगके पापों, दु.खों और संकटोंको हरने- वाली है ॥ १॥ रामनामके प्रभावसे गणेश (सर्वप्रथम) पूजे जाते हैं । गणेशजीने अपनी करनीको स्वयं कहा है, कुछ छिपाकर नहीं रक्खा। यह राम-नाम संसाररूपी समुद्रका पुल है (इसपर चढ़कर भक्तजन सहज ही भवसागरसे तर जाते हैं ), काशीमें भगवान् शङ्कर भी पार्वतीके सहित जीवोंको मोक्ष देनेके लिये राम-नामको जपा करते हैं ॥ २ ॥ वाल्मीकि व्याधके अनन्त पाप थे, किन्तु उलटा नाम 'मरा-मरा' जपकर वे ऐसे हो गये कि मुनियों और देवताओंने भी उनकी पूजा की। अगस्त्य ऋषिने भी इसी राम-नामके वलपर विन्ध्याचलपर्वतको रोक लिया एवं समुद्रको सुखा दिया था। पीछे वह समुद्र उन्हीं ब्राह्मण (अगस्त्य ) के भयसे हृदयमे हार मान- कर खारा हो गया ॥ ३ ॥ राम-नामकी अपार महिमा है । शेष, शुकदेव, वेद और पण्डितोंने बार-बार अपनी बुद्धिके अनुसार इसका वर्णन किया है। राम-नामसे प्रीति होना तुलसीदासके लिये कामधेनु और कल्पवृक्ष ही है ( उसे तो इसी राम-नामसे मनचाहा दुर्लभ पद मिला है) । अधिक क्या, यह राम-नाम अज्ञानके अन्धकारको दूर करनेके लिये साक्षात् सूर्य है ॥ ४ ॥ [२४८] पाहि, पाहि राम ! पाहि रामभद्र, रामचंद्र ! सुजस स्त्रवन सुनि आयो हाँ सरन । दीनबंधु! ' 'दीनता-दरिद्र दाह-दोष-दुख दारुन दुसह दर-दुरित-हरन ॥ १॥
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३८३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।