विनय-पत्रिका ३८५ बबूलके बागमें अपना मन लगा रक्खा है। ( बबूलके वागमें दुःखरूप कॉटोंके सिवा और क्या मिल सकता है ? )॥४॥ आपके समान तो कोई ज्ञान-निधान नहीं है और मेरे समान और कोई मूर्ख नहीं है, यह बात पुराणोंने कही है। इस बातको विचार कर हे नाथ ! आपको जो उचित प्रतीत हो इस तुलसीदासके लिये वही कीजिये ॥ ५॥ [२४५] मोहि मूढ़ मन बहुत विगोयो। याके लिये सुनहु करुनामय, मै जग जनमि-जनमि दुख रोयो ॥१॥ सीतल मधुर पियूष सहज सुख निकटहि रहत दूरि जन खोयो। बहु भॉतिन स्त्रम करत मोहवस वृथहि मंदमति वारि बिलोयो २ करम-कीच जिय जानि, सानिचित,चाहत कुटिलमलहि मल धोयो तृषावंत सुरसरि बिहायसठ फिरि-फिरि विकल अकास निचोयो३ तुलसिदास प्रभु कृपा करहु अव, मैं निज दोष कछू नहिं गोयो। डासत ही गइ बीति निसा सब कवहुँ न नाथ ! नींद भरिसोयो भावार्थ-इस मूर्ख मनने मुझको खूब ही छकाया । हे करुणामय ! सुनिये, इसीके कारण मैं बारंबार जगत्में जनम-जनम- कर दुःखसे रोता फिरा ॥१॥ शीतल और मधुर अमृतरूप सहजसुख ( ब्रह्मानन्द ) जो अत्यन्त निकट ही रहता है ( आत्मा- का खरूप ही सत्, चित्, आनन्दधन है ) मैंने इस मनके फेरमें पड़कर उसे यों भुला दिया, मानो वह बहुत ही दूर हो । मोहवश' अनेक प्रकारसे परिश्रम कर मुझ मूर्खने व्यर्थ ही पानीको बिलोया ( विषयरूपी जलको मथकर उससे परमानन्दरूप घी निकालना चाहा ) ॥२॥ यद्यपि मनमें यह जानता था कि कर्म कीचड़ है,
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