पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३७६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३८१ विनय-पत्रिका मेरे मनसे कभी नहीं जाती ॥ २॥ मैं दुखी हूँ, आप दुःखोंके दूर करनेवाले हैं। आपका यह यश वेद-पुराण गा रहे हैं। मैं (जन्म-मृत्युरूप) संसारसे डरा हुआ हूँ और आप सब भय नाश करनेवाले हैं। (आपके और मेरे इतने सम्बन्ध होनेपर भी ) क्या कारण है कि आप मुझपर कृपा नहीं करते। ॥ ३ ॥ हे श्रीरामजी! आप आनन्दके धाम तथा श्रमके नाश करनेवाले हैं और मैं संसार- के तीनों (दैहिक, दैविक और भौतिक ) श्रमोंसे अत्यन्त ही दुखी हो रहा हूँ। इन बातोंको अपने मनमें विचारकर तथा अपनी प्रभुताको समझकर तुलसीदासको अपनी शरणमें रख ही लीजिये ॥४॥ [२४३] यहै जानि चरनन्हि चित लायो। नाहिन नाथ ! अकारनको हितु तुम समान पुरान-श्रुति गायो॥१॥ जननि-जनक, सुत-दार, बंधुजन भये बहुत जहँ-जहँ हो जायो। सबखारथहित प्रीति,कपटचित, काहू नहिं हरिभजन सिखायो॥२॥ सुर-मुनि,मनुज दनुज, अहि-किन्नर मैंतनुधरि सिरकाहिननायो। जरतफिरत त्रयताप पापवस,काहुन हरि!करि कृपा जुड़ायो॥३॥ जतन अनेक किये सुख-कारन हरि-पद,विमुख सदा दुख पायो। अब थाक्योजलहीन नावज्यों देखत विपति-जाल जग छायो ॥४॥ मोकहँ नाथ! वृझिये, यह गति सुख निधान निज पति विसरायो। अब तजिरोष करहुकरुना हरि तुलसिदास सरनागत आयो ॥५॥ भावार्थ-यही जानकर मैंने ( सब ओरसे हटाकर ) आपके चरणोंमें चित्त लगाया है कि हे नाथ ! आपके समान, बिना ही कारण, हित करनेवाला दूसरा कोई नहीं है, ऐसा वेद और पुराण