विनय-पत्रिका केवल कलिके पापोंसे सने हुए हैं उनकी प्रशंसा करते-करते मुँह सूख गया है और उनको भगवान्से भी अधिक समझ रक्खा है ॥२॥ सुखके लिये निरन्तर करोड़ों उपाय करते-करते कभी पैर नहीं दुखे (दिन-रात विषय-भोगोंके सुखोंमे इधर-उधर भटकता फिरा) । हृदय रास्तेके जलकी भाँति सदा मैला ही बना रहा, कभी निर्मल अथवा स्थिर नहीं हुआ ॥ ३॥ इस दीनताको दूर करनेके लिये अगणित उपाय मनमें सोचे, पर हे तुलसी ! चिन्तामणि (श्रीरघुनाथजी) को पहचाने बिना चित्तकी चिन्ता नहीं मिट सकती (परमात्माका और उनकी सुहृदताका ज्ञान होनेसे ही चिन्ताओंका नाश होगा)॥४॥ [ २३६ ] जो पैजिय जानकी-नाथ न जाने । तो सब करम-धरम श्रमदायक ऐसेइ कहत सयाने ॥ १ ॥ जे सुर, सिद्ध, मुनीस, जोगविद वेद-पुरान बखाने । पजा लेत, देत पलटे सुख हानि-लाभ अनुमाने ॥ २ ॥ काको नाम धोखेहू सुमिरत पातकपुंज पराने । बिप्र-बधिक, गज-गीध कोटि खल कौनके पेट समाने॥३॥ स दोष दरि करि जनके, रेनु-से गुन उर आने । तलसिदास तेहि सकल आसतजि भजहि न अजहुँअयाने ॥५॥ भावार्थ-अरे जीव ! यदि तूने जानकीनाथ श्रीरघुनाथजीको यसे नहीं जाना तो तेरे सब कर्म, धर्म केवल परिश्रम ही देनेवाले हैं। ( उनसे कोई असली लाभ नहीं होगा। विमान पोंने ऐसा ही कहा है। (श्रीरामचन्द्रजीको तत्त्वसे जान लेनेमें मारकर्म-धर्मोकी सिद्धि है)॥ १ ॥ वेद और पुराण कहते हैं
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३६७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।