३७१ विनय-पत्रिका भावार्थ-सुन्दर ( मनुष्य- ) जीवन व्यर्थ ही बीत गया। तनिक भी परमार्थ पल्ले नहीं पडा । दिनोंदिन अनीति बढ़ती ही गयी ॥१॥ लड़कपन तो खेलते-खाते बीत गया, जवानीको स्त्रियोंने जीत लिया और बुढ़ापा रोग, ( स्त्री-पुत्रादिके ) वियोग, शोक तया परिश्रमसे परिपूर्ण होनेके कारण वृया बीत गया ॥ २ ॥ राग, क्रोध, ईर्ष्या और मोहके कारण संतोंकी सभा अच्छी नहीं लगी और (सत्सङ्गके अभावसे) न तो श्रीरघुनाथ जीकी गुगावलीहीको कहा-सुना तया न श्रीरामजीके चरणोंमे प्रेम ही हुआ ॥ ३ ॥ असहनीय ससारके भयको सुनकर अब यह हृदय पश्चात्तापरूपी आगसे जला जा रहा है, अब इस तुलसीके लिये अपने विरदकी रीतिको सोच-समझकर जो कुछ भी प्रभुसे बन पडे सो करे ॥ ४ ॥ [२३५] ऐसेहि जनम-समूह सिराने । प्राननाथ रघुनाथ-से प्रभु तजि सेवत चरन विराने ॥ १ ॥ जे जड़ जीव कुटिल, कायर, खल, केवल कलिमल-साने । सूखत बदन प्रसंसत तिन्ह कहँ हरिते अधिक करि माने ॥ २ ॥ सुख हितकोटि उपाय निरंतर करत न पाय पिराने। सदा मलीन पंथके जल ज्यों, कबहुँ न हृदय थिराने ॥ ३ ॥ यह दीनता दूर करिवेको अमित जतन उर आने। तुलसी चित-चिंता न मिट विनु चिंतामनि पहिचाने ॥ ४ ॥ भावार्थ-इसी प्रकार अनेक जन्म (व्यर्थ) वीत गये । प्राणनाथ रघुनाथजी-सरीखे खामीको छोड़कर दूसरोके चरणोंकी सेवा करता रहा ॥१॥ जो मूर्ख जीव कुटिल, कायर और दुष्ट हैं तथा जो
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