विनय-पत्रिका ३७० भावार्थ-मनका मनोरथ भी एक ( विलक्षण ) ही प्रकारका है। वह इच्छा तो करता है ऐसे पुण्योंके फरकी जो मुनियों के मनको भी दुर्लभ है, किन्तु पाप करनेसे उसकी इच्छा कभी पूरी नहीं होती ( करूँ पाप और चाहूँ सर्वश्रेष्ठ पुण्यका फल, यह कैसे. हो सकता है ) ॥ १ ॥ कर्म-भूमि भारतवर्षमें होनेपर भी कलियुगमें जन्म, नीचोंकी सगति, अज्ञान तथा घमंडसे मतवाली बुद्धि एवं करोडों बुरे-बुरे कर्म-इन सबके कारण परम पद और शान्ति कैसे मिल सकती है? ॥ २ ॥ संतों और गुरुकी सेवा करने तथा वेद और पुराणों के सुननेसे परम शान्तिका ऐसा निश्चय हो जाता है जैसे सारगी बजते ही राग पहचान लिया जाता है। हे तुलसी ! प्रभु रामचन्द्रजीका स्वभाव तो अवश्य ही कल्पवृक्षके समान है (जो उनसे मांगा जाता है, वही मिल जाता है ) किन्तु, साथ ही वह ऐसा है, जैसे दर्पणमें मुखका प्रतिबिम्ब । (जिस प्रकार अच्छा या बुरा जैसा मुँह बनाकर दर्पणमें देखा जायगा, वह वैसा ही दिखायी देगा, इसी प्रकार भगवान् भी तुम्हारी भावनाके अनुसार ही फल देंगे) ॥ ३॥ [२३४] जनम गयो वादिहिं वर वीति । परमारथ पाले न परयो कछु, अनुदिन अधिक अनीति ॥१॥ खेलतखातलरिकपन गोचलि,जीवन जुवतिन लियोजीति। गावियोग-लोग-धम-संकुल बडि वय वृथहि अतीति ॥ २॥ रोष-इरिपा-विमोह-बस रुची न साधु-समीति। कहे न सुने गुनगन रघुवरकी भइ न रामपद-प्रीति ॥ ३॥ प्रयदहत पछिताय अनल अव, सुनत दुसह भवभीति । सीप्रभ ते होइ सो कीजिय समुझि विरदकी रीति ॥
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