पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३६

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विनय-पत्रिका है, यह ऐसा सुन्दर दृश्य है मानो नीले रंगके पलंगपर सहस्र फनवाले शेषनाग सो रहे हैं। हे देवताओंकी स्वामिनी । तुम्हारे हजारों सोते शेपजीकी फनावली-जैसे शोभित हो रहे हैं ॥ ४ ॥ तुम्हारी असीम महिमा है, अगणित रूप हैं, राजाओंकी मुकुटमणियोंसे तुम वन्दनीय हो । हे तीनों मागाँसे जानेवाली ! हे शिवप्रिये !! हे भव- भय-हारिणी जननी !!! मुझ तुलसीदासको श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें अनन्य प्रेम दो ॥ ५॥ [१९] हरनि पाप त्रिविध ताप सुमिरत सुरसरित । बिलसति महि कल्प-वेलि मुद-मनोरथ-फरित ॥१॥ सोहत ससि धवल धार सुधा-सलिलभरित । बिमलतर तरंग लसत रघुवरके से चरित ॥२॥ तो विनु जगदंब गंग कलिजुग का करित ? घोर भव अपारसिंधु तुलसी किमि तरित ॥३॥ भावार्थ हे गङ्गाजी ! स्मरण करते ही तुम पापों और दैहिक, दैविक, भौतिक-इन तीनों तापोंको हर लेती हो । आनन्द और मनःकामनाओंके फलोंसे फली हुई कल्पलताके सदृश तुम पृथ्वीपर शोभित हो रही हो ॥ १॥ अमृतके समान मधुर एवं मृत्युसे छुड़ानेवाले जलसे भरी हुई तुम्हारी चन्द्रमाके सदृश धवल धारा शोभा पा रही है। उसमे निर्मल रामचरित्रके समान अत्यन्त निर्मल तरङ्गे उठ रही हैं ॥ २॥ हे जगज्जननी गङ्गाजी ! तुम न होती तो पता नही कलियुग क्या-क्या अनर्थ करता और यह तुलसीदास धोर अपार संसार-सागरसे कैसे तरता ? ॥ ३ ॥