३६१ विनय-पत्रिका अनुग्रहके कारण ऐसा सुखी और निश्चिन्त है, जैसे कोई बालक अपने माता-पिताके राज्यमें होता है ॥४॥ [२२६] भरोसो जाहि दूसरो सो करो। मोको तो रामको नाम कलपतरु कलि कल्यान फरो॥१॥ करम उपासन, ग्यान, वेदमत, सो सब भाँति खरो। मोहि तो 'सावनके अंधहि' ज्यों सूझत रंग हरो॥२॥ चाटत रह्यो खान पातरि ज्यों कवहुँ न पेट भरो। सो हो सुमिरत नाम-सुधारस पेखत परुसि धरो॥३॥ स्वारथ औ परमारथ हू को नहि कुंजरो नरो। सुनियत सेतु पयोधि पषाननि करि कपि-कटक तरो॥४॥ प्रीति-प्रतीति जहाँ जाकी, तहँ ताको काज सरो। मेरे तो माय-चाप दोउ आखर, हौ सिसु-अरनि अरो॥५॥ संकर सास्त्रि जो राखि कहाँ कछु तो जरि जीह गये। अपनो भलो राम-नामहि ते तुलसिहि समुझि परो॥६॥ मावार्थ-जिसे दूसरेका भरोसा हो, सो करे। मेरे लिये तोइस कलियुगमें एक राम-नाम ही कल्पवृक्ष है, जिसमें कल्याणरूपी फल फला. है । भाव यह कि राम-नामसे ही मुझे तो यह भगवत्-प्रेम प्राप्त हुआ है ॥१॥ यद्यपि कर्म, उपासना और ज्ञान-ये वैदिक सिद्धान्त सभी सब प्रकारसे सच्चे हैं, किन्तु मुझे तो, सावनके अन्धेकी भाँति, जहाँ देखता हूँ वहाँ हरा-ही-हरा रंग दीखता है । ( एक राम-नाम ही सूझ रहा है ) ॥२॥ मै कुत्ते की नाई (अनेक जूंठी) पत्तलोंको चाटता फिरा, पर कभी मेरा पेट नहीं भरा । आज मैं नामस्मरण
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