पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३५०

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३५५ विनय-पत्रिका स्मरण कर इस चञ्चल चित्तवाले ( कलि ) का सारा चाव चम्पत हो जायगा ( वह अपनी सारी शक्ति भूल जायगा)॥ ८॥ मेरी यह विनती सुनकर श्रीरघुनाथजी मुसकराये और अपने छोटे भाई लक्ष्मण- को इन बातोंका तात्पर्य समझाये ( कि देखो, तुलसी कैसा चतुर है ! ) लक्ष्मणजीने हँसकर कहा कि ठीक ही तो कहता है । वस, इस प्रकार मेरी सारी बात बन गयी॥ ९ ॥ भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने इस गरीबका न्याय कर दिया । यह सुनकर संतोंके घर बधाई वजने लगी । दुःख, चिन्ता, छल-कपट और पापके समूह सब नष्ट हो गये॥१०॥ (श्रीरामजीका) अपने दासपर ऐसा निर्गुण-अलौकिक (त्रिगुणमयी लौकिक प्रीति नहीं) पवित्र तथा मायारहित प्रेम और विश्वास देखकर, हे तुलसीदास ! मुनिलोग कहने लगे कि विपुल कीर्तिवाले भगवान्की जय हो, जय हो ॥११॥ [२२१] नाथ कृपाहीको पंथ चितवत दीन हौं दिनराति । होइ धौं केहि काल दीनदयालु ! जानि न जाति ॥ १॥ सुगुन, ग्यान-विराग-भगति, सु-साधननिकी पाँति । भजे विकल बिलोकि कलि अघ-अवगुननिकी थाति ॥२॥ अति अनीति-कुरीति भइ भुइँ तरनि हू ते ताति। जाउँ कहँ ? वलि जाउँ, कहूँ न ठाउँ, मति अकुलाति ॥ ३ ॥ आप सहित न आपनो कोउ, वाप! कठिन कुभाँति । स्यामघन ! सीचिये तुलसी, सालि सफल सुखाति ॥ ४॥ भावार्थ-हे नाथ ! मैं दीन दिन-रात आपकी कृपाकी ही बाट देखता रहता हूँ। हे दीनदयालो ! पता नहीं, आपकी वह कृपा