पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३४५

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३५० विनय-पत्रिका विप्रतिय नृग वधिकके दुख-दोस दारुन दरन ॥३॥ सिद्ध-सुर-मुनि-बूंद-बंदित सुखद सब कह सरन । सकृत उर आनत जिनहिं जन होत तारन तरन ॥४॥ कृपासिंधु सुजान रघुवर प्रनत-आरति-हरन । दरस-आस-पियास तुलसीदास चाहत मरन ॥५॥ भावार्थ-हे हरे! क्या कभी आप अपने उन पवित्र चरणोंका दर्शन करायेंगे जो समस्त क्लेशों और कलियुगके सभी पापोंके नाश करनेवाले और सम्पूर्ण कल्याणके कारण हैं ? ॥ १॥ जिन (चरणों) का रंग शरद् ऋतुमें उत्पन्न, सुन्दर और तुरंतके खिले हुए लाल-लाल कमलोंके समान है, जिन्हें श्रीलक्ष्मीजी अपनी सुन्दर हथेलियोंसे दवाया करती हैं और जो अतुलनीय शोभामय हैं ॥२॥ जोगडाके पिता है (जिन चरणोंसे गङ्गाकी उत्पत्ति हुई है),कामदेवको भस्म करनेवाले शिवजीके प्यारे हैं तथा जिन्होंने कपट-ब्रह्मचारीका रूप धारण कर राजा बलिको छला है, जिन्होंने (गौतम ) ब्राह्मणकी स्त्री अहल्याको और राजा नृगको (शापसे छुड़ाकर परम सुख दिया ) और हिंसक निषादके सारे दुःख और घोर पाप दूर कर दिये ॥३॥ सिद्ध, देवता और मुनियों के समूह जिनकी सदा वन्दना किया करते हैं। जो सभीशो सुख और शरण देनेवाले है, एक बार भी जिनका हृदयमें ध्यान करनेसे भक्त स्वयं तर जाता है तथा दूसरोंको तारने वाला बन जाता है ॥ ४॥ हे कृपासागर सुचतुर रघुनाथजी आप गरणागोंके दुख दूर करनेवाले हैं । यह तुलसीदास अब आपके उन चरणों के दर्शनकी आशारूपी प्यासके मारे मर रहा है ! (शीतही अपने चरण-कमल दिग्याकर इसकी रमा कीजिये)॥५॥