विनय-पत्रिका ३४६ राम सहज कृपालु कोमल दीनहित दिनदानि । भजहि ऐसे प्रभुहि तुलसी कुटिल कपट न ठानि ॥ ७॥ भावार्थ-श्रीरघुनाथजीकी ऐसी ही आदत है कि वे मनमें विशुद्ध और अनन्य प्रेम समझकर नीचके साथ भी स्लेह करते हैं ॥ १॥ (प्रमाण सुनिये ) गुह निषाद महान् नीच और पापी था, उसकी क्या इज्जत थी ? किन्तु भगवान्ने उसका ( अनन्य और विशुद्ध ) प्रेम पहचानकर उसे पुत्रकी तरह हृदयसे लगा लिया ॥२॥ जटायु गीध, जिसे ब्रह्माने हिंसामय ही बनाया था, कौन-सा दयाल था ? किन्तु रघुनाथजीने अपने पिताके समान उसको अपने हायसे जलाञ्जलि दी ॥ ३ ॥ शबरी खभावसे ही मैली-कुचैली, नीच जातिकी और सभी अवगुणोंकी खानि थी; परन्तु ( उसकी विशुद्ध और अनन्य प्रीति देखकर ) उसके हाथके फल खाद बखान-बखानकर मापने बड़े प्रेमसे खाये ॥ ४॥ राक्षस एवं शत्रु विभीषणको शरणमें आया जानकर आपने उठकर उसे भरतकी भॉति ऐसे प्रेमसे हृदयसे लगा लिया कि उस प्रेमविह्वलतामें आप अपने शरीरकी सुध-बुध भी मूल गये॥५॥ बंदर कौन-से सुन्दर और शील-स्वभावके थे जिनका नाम लेनेसे भी हानि हुआ करती है, उन्हें भी आपने अपना मित्र बना लिया और अपने घरपर लाकर उनका सब प्रकार आदरसत्कार किया ॥६॥ (इन सब प्रमाणोसे सिद्ध है कि) श्रीरामचन्द्रजी स्वभावसे ही कृपालु, कोमल खभाववाले, गरीबोंक हितू और सदा दान देनेवाले हैं। अतएव है तुलसी ! तू तो कुटिलता और कपट छोड़कर ऐसे प्रभु श्रीरामजीका ही (विशुद्ध और अनन्य प्रेमसे सदा) भजन किया कर ॥ ७॥
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