पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३४०

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विनय-पत्रिका जो शिशुपाल नियमसे प्रतिदिन गिन-गिनकर गालियाँ देता था, उसको आपने राजाओंकी सभामें ( पाण्डवोंके राजसूय-यज्ञमे ) सबके देखते देखते अपनेमे ही मिला लिया ॥ ४ ॥ मूर्ख बहेलियेने तो मृग समझकर आपके चरणमें निशाना लगाकर (बाण ) मारा, पर उसे भी आपने अपनी दयालुताकी बान प्रकट करके सदेह अपने परमधामको भेज दिया॥५॥ (इस प्रकारके जीवोंने ) जिन्होंने पुण्य और पाप दोनों ही किये हैं इनके लिये तो क्या कही जाय ! - (क्योंकि उनका तो सद्गति पानेका कुछ-न-कुछ अधिकार ही था) किन्तु उन्होंने तो प्रत्यक्ष पापमूर्ति तुलसीको भी शरणमें रख लिया है (इसीसे उनकी वान प्रत्यक्ष सिद्ध हो जाती है) ॥ ६॥ [२१५] श्रीरघुवीरकी यह वानि । नांचल सों करत नेह सुप्रीति मन अनुमानि ॥१॥ परम अधम निषाद पॉवर, कौन ताकी कानि ? लियो सो उर लाइ सुत ज्यों प्रेमको पहिचानि ॥२॥ गांध कौन दयालु, जो विधि रच्यो हिसा सानि ? जनक ज्यों रघुनाथ ताकह दियो जल निज पानि ॥ ॥३॥ प्रकृति-मलिन कुजाति सवरी सकल अवगुन-खानि । खात ताके दिये फल अति रुचि वखानि बखानि ॥ ४॥ रजनिचर अरु रिपु विभीषन सरन आयो जानि । भरत ज्यो उठि ताहि भेटत देह-दसा भुलानि ॥५॥ कौन सुभग सुसील वानर, जिनहिं सुमिरत हानि । किये ते सव सखा, पूजे भवन अपने आनि ॥ ६॥