३५ विनय-पत्रिका पापोंको धोनेवाली हो॥१॥ तुम अगाध निर्मल जलको धारण किये हो, वह जल शीतल और तीनों तापोंका हरनेवाला है। तुम सुन्दर भँवर और अति चञ्चल तरङ्गोंकी माला धारण किये हो । नगर-निवासियोंने पूजाके समय जो सामग्रियाँ भेट चढ़ायी हैं उनसे तुम्हारी चन्द्रमाके समान धवल धारा शोभित हो रही है। वह धारा संसारके जन्म-मरण- रूप भारको नाश करनेवाली तथा भक्तिरूपी कल्पवृक्षकी रक्षाके लिये थाल्हारूप है ॥२॥ तुम अपने तीरपर रहनेवाले पक्षी, जलचर, थलचर, पशु, पतंग, कीट और जटाधारी तपखी आदि सबका समानभावसे पालन करती हो । हे मोहरूपी महिषासुरको मारनेके लिये कालिकारूप गङ्गाजी ! मुश तुलसीदासको ऐसी बुद्धि दो कि जिसमे वह श्रीरघुनाथजीका स्मरण करता हुआ तुम्हारे तीरपर विचरा करे॥३॥ [१८] जयति जय सुरसरी जगदखिल-पावनी । विष्णु-पदकंज-मकरंद इव अम्बुवर वहसि, दुख दहसि, अघवृन्द-विद्राविनी ॥१॥ मिलित जलपात्र-अज युक्त हरिचरणरज, विरज-वर-वारि त्रिपुरारि शिर-धामिनी । जगु-कन्या, धन्य, पुण्यकृत सगर-सुत, भूधरद्रोणि-विहरणि बहुनामिनी ॥२॥ यक्ष, गंधर्व मुनि, किनरोरग, दनुज, मनुज मजहिं सुकृत-पुंज युत-कामिनी । वर्ग-सोपान, विज्ञान-शानप्रदे, मोह-मद-मदन-पाथोज-हिमयामिनी
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