विनय-पत्रिका ३४० क्रोधसे यद्यपि आप मेरी विनतीको नहीं सुनते और मेरी ओरसे अपना मह फेरे हुए हैं, तथापि मैं तो निर्भय होकर, हे करुणाके समुद्र । यही कहूँगा कि मेरी बात सुनकर ( मेरी दीन पुकार सुनकर ) मेरी ओर देखे बिना आपसे कैसे रहा जाता है। ( करुणाके सागरसे दीनकी आर्त पुकार सुनकर कैसे रहा जाय १ ) ॥२॥ (यदि आप मेरी मनःकामना पूछते हैं, तो सुनिये ) सबसे प्रधान रुचि तो मेरी आपके परमधाममें जाकर निवास करनेकी है, किन्तु हे नाथ ! उस मेरी रुचिको काम, क्रोध, लोभ और मोह आदिने घेर रक्खा है (इनके आक्रमणसे वह कामना दब जाती है ) मोक्ष तो दुर्लभ है, खर्ग मिलना भी कठिन है, क्योंकि वह केवल पुण्योंके फलसे ही मिलता है ( मैंने कोई उत्तम कर्म तो किये नहीं, फिर वर्ग कैसे मिले ?), अब रही यमपुरी ( नरक ) सो उसके समीप भी आपके नामके वलसे नहीं जा सकता ( राम-नाम लेनेवालेको यमराज अपनी पुरीके निकट ही नहीं आने देते ) ॥३॥ (इससे ) अब मुझे कहीं भी रहने के लिये स्थान नहीं रहा, आप ही बताइये, कहाँ जाऊँ ? हे कोसलनाथ ! मैं निर्धन और दीन हूँ ( धनी होता, तो कहीं घर ही बनवा लेता), आश्रयस्थानके न होनेसे व्याकुल हो रहा हूँ। इससे हे नाय ! इस तुलसीदासको कृपाकर उसी गॉवमें रहनेकी जगह दे दीजिये जिसमें गजेन्द्र, जटायु, व्याध (वाल्मीकि) आदि रहते हैं ॥४॥ [२११ ] कबहुँ रघुबंसमनि । सो कृपा करहुगे। जेहि सपा व्याघ, गज, विप्र, नल नर तरे, तिन्हहि सम मानि मोहि नाथ उद्धरहुगे ॥१॥
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