पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३३१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विनय-पत्रिका विरदकी लाज फरि दास तुलग्निहि देय! लेहु अपनाइ अब देहु जनि यापी ॥ ४ ॥ भावार्थ-हे प्रभो ! आपको में किस तरह विनती कहकर सुनाऊँ : तीन तरहके ( मन, वचन और कर्म से उत्पन्न ) अपरिमित प्रकारोंसे किये जानेवाले अपने पापोंकी और देवकर जब मैं आपके शरणमें सम्मुख आना चाहता हूँ तब संकोचके मारे सिर नीचा हो जाता है ॥१॥ भगवद्भक्तोंका भेष बनाकर मानो सुन्दर (धोखेकी) टट्टी बनाता हूँ और कपटरूपी हरे-हरे पत्तोंसे उमे छा देता हूँ। आपके (राम) नामकी लग्गी लगाकर, मधुर वचनोंका लासा लगा देता हूँ। और फिर बहेलियेकी भाँति विषयरूपी पक्षियोंको फाँस लेता हूँ। (लोगोंकी दृष्टिमे तिलक, माला, कण्ठी, राम-नामके गुणगान करनेवाला और मधुरवाणी बोलनेवाला महात्मा भक्त बना फिरता हूँ, परन्तु मन-ही-मन विषयोंका चिन्तन करता हुआ उन्हींकी ताकमें लगा रहता हूँ) ॥ २ ॥ मैं इतना बडा पापी हूँ कि मेरे एक रोमपर सौ करोड पापी निछावर किये जा सकते हैं, पर तो भी अपनेको सतोंकी गिनतीमें सबसे पहले गिनवाना चाहता हूँ, सत-शिरोमणि बननेका दावा रखता हूँ। मैं बडा ही असभ्य और नीच हूँ परन्तु घमंड- रूपी पहाड़पर चढ़ा बैठा हूँ। इसीसे तो मूर्ख होनेपर भी अपनेको सर्वज्ञ और भक्तश्रेष्ठ बतलाता हूँ॥ ३ ॥ हे भगवन् ! कह नहीं सकता कि झूठ है या सच, पर कोई-कोई मेरे लिये यह कहते हैं कि यह रामजीका है और मैं भी आपहीका कहलाया चाहता हूँ। हे देव ! इससे अब अपने बानेकी लाज रखकर इस तुलसीदासको अपना ही लीजिये ( क्योंकि जब आपका कहलाकर भी दुष्ट हीरहूँगा तो आपके विरदकी लाज कैसे रहेगी? ) अब टाल-मटोल न कीजिये ॥४॥