पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३३०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विनय-पत्रिका भगवान्के गुण गिनते-गिनते कभी पूरे नहीं होते ॥ १॥ जो दुखी, नीच, अन्त्यज, कपटी, दुष्ट, पापी और भयभीत कहीं भी आश्रय नहीं पा सकते वे भी विवश होकर एक बार ही श्रीराम-नाम-स्मरण कर उस (परम ) पदपर पहुँच जाते हैं, जहाँ देवता भी नहीं जा सकते॥२॥ जिनके चरणरूपी कमलोंमें ऐसे वैराग्यसम्पन्न मुनिरूपी भ्रमर लुभाये रहते हैं, जिन्हें परमसुन्दर गति मोक्षतकका लोभ नहीं है। हे शठ तुलसीदास ! तू उस अनाथोंपर सदा कृपा करनेवाले (परम ) करुणामय प्रभुका भजन क्यों नहीं करता ? ॥ ३ ॥ राग कल्याण [२०८] नाथ सो कौन विनती कहि सुनाचौं । त्रिविध विधि अमित अवलोकि अघ आपने , सरन सनमुख होत सकुचि सिर नावौं ॥ १ ॥ विरचि हरिभगतिको बेष बर टाटिका , कपट-दल हरित पल्लवनि छावों नामलगि लाइ लासा ललित-वचन कहि, व्याध ज्यों बिषय-विहगनि बझावों॥ २ ॥ कुटिल सतकोटि मेरे रोमपर वारियहि, साधु गनतीमें पहलेहि गनावौं। परम वर्वर खर्व गर्व-पर्वत चढयो, अग्य सर्बग्य, जन-मनि जनावौं ॥ ३ ॥ साँच किधों झूठ मोको कहत • कोउ- कोउ राम ! रावरो, हाँ तुम्हरो कहावौं ।