३३१ विनय-पत्रिका विषयोंकी धारामें नहीं पडना चाहिये ॥ १८॥ सारे सन्देहोंके नाश करनेवाले, दुःखोंके दूर करनेवाले और सुखके निधान केवल एक श्रीहरि ही हैं। चाहे जितने ही उपाय कर लो, संतोंकी कृपाके बिना वे नहीं मिल सकते ( अतः सत-कृपा ही सर्वसाधनोंमें प्रधान है)॥ १९॥ संसाररूपी समुद्रसे तरनेके लिये संतोंके पवित्र चरण ही नौका है। हे तुलसीदास ! (इस नौकापर चढ़कर अर्थात् संतोंके चरणोंकी सेवा करनेसे ) दु.खोंके नाश करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी बिना ही परिश्रमके मिल जायँगे ॥ २०॥ राग कान्हरा [२०४] जो मन लागै रामचरन अस । देह-गेह-सुत-वित-कलन महँ मगन होत विनु जतन कियेजस ॥१॥ द्वंद्वरहित,गतमान,ग्यानरत,विषय-विरत खटाइ नाना कस। सुखनिधान सुजान कोसलपति द्वैप्रसन्न,कहु,क्यों न होंहि वस॥२॥ सर्वभूत-हित, नियंलीक चित,भगति-प्रेमदृढ़ नेस, एकरस । तुलसिदासयह होइतवहिं जब द्वै ईस, जेहि हतो सीसस ॥३॥ भावार्थ-जो यह मन श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें वैसे ही लग जाय, जैसे कि यह बिना ही किसी प्रयत्लके खभावसे ही शरीर, घर, पुत्र, धन और स्त्रीमें मग्न हो जाता है ॥ १॥ तो वह द्वन्द्वों (सुख-दु.ख आदिसे ) रहित हो जाय, उसका अभिमान दूर हो जाय, वह ज्ञानमें तल्लीन हो जाय और विषयोंने वैसे ही विरक्त हो १.कस' शब्द 'कास्यक' या 'कास्य' का अपभ्रश मालूम होता है, कास्यक पीतलको और कास्य ताबा-रॉगा मिली हुई धातुको कहते हैं, इन दोनोंके पात्रोंमें ही खटाई बिगड़ जाती है ।
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३२६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।