"३२७ विनय-पत्रिका संसय-समन, दमन दुख, सुखनिधान हरि एक। साधु-कृपा विनु मिलहिं न करिय उपाय अनेक ॥१९॥ भवसागर कहँ नाव सुद्ध संतनके चरन । तुलसिदास प्रयास विनु मिलहिं राम दुखहरन ॥२०॥ भावार्थ-हे मन ! तू अभिमान छोडकर भगवत्-रूपी श्रीगुरुके चरणारविन्दोंका भजन कर । जिनकी सेवा करनेसे आनन्दघन भगवान् श्रीहरिकी प्राप्ति हो जाती है ॥ १॥ जैसे प्रतिपदा ( पक्षमें सबसे पहला दिन है ) उसी प्रकार ( सर्वसाधनोंमें ) प्रथम प्रेम है। प्रेमके बिना श्रीरामजीका मिलना बहुत दूरकी बात है । यद्यपि वे बहुत ही निकट, सबके हृदयमें ही पूर्णरूपसे निवास करते हैं ॥२॥ धीर भावसे ( अचञ्चल चित्तसे ) द्वितीयाके समान दूसरा साधन यह है कि द्वैत-बुद्धि (ईश्वर और जीवमें भेद-बुद्धि ) छोड़कर (समदृष्टिसे) समस्त पृथ्वी-मण्डलमें ( निश्चिन्त होकर ) विचरण करना चाहिये। मोह, माया और घमडसे रहित हृदयमें सदा श्रीरघुनाथजी, निवास करते हैं ॥ ३॥ तृतीयाके समान तीसरा उपाय यह है कि परम पुरुष लक्ष्मीकान्त श्रीमुकुन्द भगवान् तीनों गुणोंसे परे हैं । अतएव (सत्व, रज औरतम) त्रिगुणमयी प्रकृतिका त्याग कर देना चाहिये। ऐसा किये बिना परमानन्दकी प्राप्ति दुर्लभ है। (जबतक पुरुष प्रकृतिमें स्थित है तभी- तक यह जीव है और तभीतक सुख-दुखका भोक्ता है। इस प्रकृनिमेंसे निकलकर लस्थ-परमात्मारूपी ख-रूपमें स्थित होनेसे ही मोक्षरूप परमानन्द मिलता है)॥४॥ चतु के समान ( भगवनातिका ) चौथा साधन यह है कि बुद्धि, मन, चित्त, और,अहूकार-इनके समुदायरूप अन्तःकरणका त्याग कर देना चाहिये (जबतक शरीर है
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