पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३२१

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नय-पत्रिका छठ पटवरग करिय जय जनक-सुता-पति लागि । रघुपति-कृपा-वारि विनु नहिं बुताइ लोभागि ॥ ७॥ सातै सप्तधातु-निरमित तनु करिय बिचार । तेहि तनु केर एक फल, कीजै पर-उपकार ॥८॥ आठ आठ प्रकृति-पर निरविकार श्रीराम । केहि प्रकार पाइय हरि, हृदय वसहिं बहु काम ॥९॥ नवमी नवद्वार-पुर वसि जेहि न आपु भल कीन्ह । ते नर जोनि अनेक भ्रमत दारुन दुख लीन्ह ॥१०॥ दस दसह कर संजम जो न करिय जिय जानि । साधन वृथा होइ सब मिलहिं न सारंगपानि ॥११॥ एकादसी एक मन वस के सेवहु जाइ । सोइ व्रत कर फल पावै आवागमन नसाइ ॥१२॥ हादसि दान देहु अस, अभय होइ त्रैलोक । परहित-निरत सो पारन बहुरि न व्यापत सोक ॥१३॥ तेरसि तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवंत । मन-क्रम-वचन-अगोचर, व्यापक, व्याप्य, अनंत ॥१४॥ चौठसि चौदह भुवन अचर-चर-रूप गोपाल । भेद गये चिनु रघुपति अति न हरहिं जग-जाल ॥१५॥ पूनों प्रेम-भगति-रस हरि-रस जानहिं दास । सम, सीतल, गत-मान, ग्यानरत, विषय-उदास ॥१६॥ विविध सुल होलिय जर, नेलिय अब फागु । जो जिय चहसि परममुख, ती यहि माग्ग लागु ॥१७॥ श्रुति पुगन-बुध-संमत चाँचरि चरित मुरारि । करि विचार भय तरिय, परिय न कय? जमचारि ॥१८॥