३२५ विनय-पत्रिका उसे नहीं काटा ॥ २॥ संशय ( अज्ञान ) रूपी समुद्रसे पार जानेके लिये राम-नाम नौकारूप है सो उसका सेवन कर तूने अपने आत्माको नहीं तारा । अनेक जन्मतक ज्ञानहीन रहकर बहुत-सी योनियों में घूमता हुआ भी तू अबतक नहीं थका ॥ ३ ॥ दूसरोंकी सहज सम्पत्ति देखकर द्वेषरूपी अग्निमे मनको जलाता रहा ( हाय ! उसके धनका नाश क्यों नहीं होता। इसी द्वेषाग्निसे जलता रहा)। शम, दम, दया और दीनोंका पालन करते हुए हृदयको शान्त कर भगवानका स्मरण नहीं किया ॥ ४ ॥ तूने मनसे, कर्मसे और वचनसे अपने (सच्चे) खामी, गुरु, पिता और मित्र उन श्रीरघुनाथजीको भुला दिया । हे तुलसीदास : अब तो यही आशा है कि जिसने जटायु गीधको तार दिया था, वही तुझे भी अपनी शरणमें रक्खेंगे॥५॥ [२०३ ] श्रीहरि-गुरु-पद-कमल भजहु मन तजि अभिमान । जेहि सेवत पाइय हरि सुख-निधान भगवान ॥१॥ परिवा प्रथम प्रेम बिनु राम-मिलन अति दुरि । जद्यपि निकट हृदय निज रहे सकल भरिपूरि ॥२॥ दुइज द्वैत-मति छाडि चरहि महि-मंडल धीर । विगत मोह-माया-मद हृदय वसत रघुबीर ॥३॥ तीज त्रिगुन-पर परम पुरुप श्रीरमन मुकुंद । गुन सुभाव त्यागे विनु दुरलभ परमानंद ॥४॥ चौथि चारि परिहरहु बुद्धि-मन-चित-अहँकार । विमल विचार परमपद निज सुख सहज उदार ॥५॥ पाँचइ पाँच परस, रस, सब्द, गंध अरु रूप। . इन्ह कर कहा न कीजिये, बहुरि परव भव-कूप ॥६॥
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