३२२ - विनय-पत्रिका [२००] तांवे सो पीठि भनहुँ तन पायो। नीच, मीच जानत न सीस पर, ईश निपट विसरायो॥१॥ अवनि-रवनि,धन-धाम, सुहद-सुत,कोन इन्हहिं अपनायो। काके भये, गये सँग काके, सव सनेह छल-छायो ॥ २॥ जिन्ह भूपनि जग जीति, बाँधि जम, अपनी बाँह वसायो। तेक काल कलेऊ कीन्हें, तू गिनती कव आयो ॥३॥ देखु विचारि, सार का साँचो, कहा निगम निजु गायो। भजहिंन अजहुँ समुझि तुलसी तेहि जेहि महेस मन लायो॥ ४॥ भावार्थ-अरे जीव ! मानो तूने तॉबेसे मढा हुआ शरीर पाया है। (तभी तो कच्चे घड़ेके समान फूटनेवाले, पानीके बुबुदेके समान बात-की-बातमें नाश हो जानेवाले नश्वर शरीरको अजर-अमर मानकर भोगोंमें लीन हो रहा है ) और तूने परमात्माको बिल्कुल ही मुला दिया ! अरे नीच ! तू यह नहीं जानता कि मौत तेरे सिरपर नाच रही है ! ॥१॥ पृथ्वी, स्त्री, धन, मकान, मित्र और पुत्रको किसने नहीं अपनाया ? किन्तु (आजतक) ये किसके हुए १ (मरते समय) किसके साथ गये ? इन सबके प्रेममें केवल कपट भरा है ॥ २॥ जिन राजाओंने दुनियाभरको जीतकर यमराजको भी कैदकर अपने अधीन कर लिया था, उनका भी कालने जब एक दिन कलेवा कर डाला, तब तेरी तो गिनती ही क्या है ? ॥ ३॥ विचारकर देख, सच्चा सार क्या है। और वेदोंने निश्चयरूपसे क्या कहा है ? है तुलसी । यह समझकर, अन्न भी तू उस श्रीरामको नहीं भजता. जिसमें श्रीशिवजीने अपना मन लगा रक्खा है ॥ ४ ॥
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