पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३१६

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३२१ विनय-पत्रिका तृष्णाके जलमे क्यों लब लगा रहा है।॥ १॥ पशु-पक्षी, देवता, मनुष्य, राक्षस और अन्यान्य सभी संसारी योनियोंमें तू भटक आया । इन सब योनियोंमें तेरे बहुत-से घर, स्त्री, पुत्र, भाई और तुझे उत्पन्न करनेवाले माता-पिता हो चुके हैं ॥ २॥ इन सबने तुझे वही विषय- भोगोंका प्रेम सिखाया, जिसके करनेसे सदा अनेक नरकोंमें जाना पडता है। वह मार्ग कभी नहीं बताया, जिसपर चलनेसे तेरा संसारी वन्धन कट जाय-तेरी जन्म-मरणसे मुक्ति हो जाय और तेरा परम कल्याण हो, मोक्षको प्राप्ति हो ॥ ३ ॥ इस प्रकार यद्यपि तू कई तरहसे छला जा चुका है फिर भी अबतक तू उन्हीं विषयोंके ही लिये जतन कर रहा है । ( वार-बार दु.ख भोगकर भी फिर उन्होंमे मन लगाता है) परन्तु अरे दुष्ट ! ( तनिक विचार तो कर ) कामनारूपी अग्निमें भोगरूपी घी डालनेसे वह कैसे शान्त होगी ? ( जितनी ही भोगोंकी प्राप्ति होगी, कामनाकी अग्नि उतनी ही अधिक भडकेगी)॥४॥ जब विषयों की प्राप्ति नहीं हुई तब तुझे बडा दुख हुआ, ( उनके नाशसे और उनके मिल जानेपर भी ) बड़ी विपत्ति प्राप्त हुई, खप्नमें भी सुख नहीं मिला । इसलिये वेदोंने इस विषयरूपी धनको, दोनों ही प्रकारसे भूतकी आगके समान दुःखप्रद बतलाया है । ( मतलब यह कि विषयी लोगोंको न तो विषयकी प्राप्तिमें सुख होता है और न अप्राप्तिमें ही ) ॥ ५ ॥ अरे ! तेरा जीवन क्षण-क्षणमें क्षीण हो रहा है, इस दुर्लभ मनुष्य-शरीरको तूने व्यर्थ ही खो दिया । अतएव हे तुलसीदास ! तू संसारी सुखकी आशा छोड़कर केवल श्रीहरिका भजन कर । सावधान, कालरूपी सौंप संसारको खाये जा रहा है। (न जाने, कब किस घड़ी तू भी कालका कलेवा हो जाय )॥६॥ वि०५० २१--