पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३११

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३१६ विनय-पत्रिका नहीं चाहता वे ही अपार चीजें सामने आ जाती हैं। अर्थात् सुखके लिये चेष्टा करनेपर भी अपार दुःख ही आते हैं ॥३॥ मन चिन्ताओंमें दूब रहा है, शरीर रोगोंके मारे व्याकुल है और वाणी झूठी तथा मलिन हो रही है ( सदा असत्य, कठोर और कुत्राच्य ही बोलती है) किन्तु यह सब होते हुए भी हे नाथ ! आपके साथ इस तुलसीदासका सम्बन्ध और प्रेम ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। (धन्य हैं, जो इस प्रकारके अधमके साथ भी प्रेमका सम्बन्ध स्थायी रखते हैं)॥४॥ [१९६] काहेको फिरत मन, करत बहु जतन, मिट न दुख विमुख रघुकुल-वीर। कीजै जो कोटि उपाइ त्रिविध ताप न जाइ, को जो भुज उठाइ मुनिवर कीर ॥१॥ सहज टेव विसारि तुही घों देखु विचारिक मिले न मथत चारि घृत विनु छोर। समझि तजहि भ्रम, भजहि पद-जुगम, सेवत सुगमः गुन गहन गंभीर ॥२॥ मागम निगम ग्रंथ, रिषि-मुनि, सुर-संत, सव ही को एक मत सुनु, मतिधीर। तलसिदास प्रभु विनु पियास मरै पसु, साधपि है निकट सुरसरि-तीर॥३॥ भावार्थ-अरे मन! तू फिमलिये बहुत-से प्रयत्न करता फिरता जबतक तू श्रीरघुकुल शिरोमणि रामजीसे विमुख है तबतक मिरे कितने भी साधनासे तेरा दु.ख नाहीं मिटेगा)। भगवद्विमुख