पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३१

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विनय-पत्रिका ३२ - बिजली-सी चमक रही है, उनपर दिव्य वस्त्र और सुन्दर आभूषण शोभित हो रहे हैं । तुम्हारे नेत्र मृगछोने और खजनके नेत्रों के समान सुन्दर हैं, मुख चन्द्रमाके समान है, तुम्हें देखकर करोड़ों रति और कामदेव लजित होते है ॥ २ ॥ तुम रूप, सुख और शीलकी सीमा हो; दुष्टोंके लिये तुम भयानक रूप धारण करनेवाली हो। तुम्ही लक्ष्मी, तुम्ही पार्वती और तुम्ही श्रेष्ठ बुद्धिवाली सरखती हो। हे जगजननि ! तुम स्वामिकार्तिकेय और गणेशजीकी माता हो और शिवजीकी गृहिणी हो। हे भवानी ! तुम्हारी जय हो, जय हो ॥३॥ तुम चण्ड दानवके भुजदण्डोंका खण्डन करनेवाली और महिषासुरको मारनेवाली हो, मुण्ड दानवके घमण्डका नाशकर तुम्हींने उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग तोड़े है । शुंभ-निशुभरूपी मतवाले हाथियोंके लिये तुम रणमें सिंहिनी हो । तुमने अपने क्रोधरूपी समुद्रमें शत्रुओंके दल- के-दल डूबो दिये हैं ॥ ४ ॥ वेद, शास्त्र और सहस्र जीभवाले शेषजी तुम्हारा गुणगान करते हैं; परन्तु उसका पार पाना उनके लिये वडा कठिन है । हे माता ! मुझ तुलसीदासको श्रीरामजीमें वैसा ही प्रण प्रेम और नेम दो, जैसा चातकका श्याम मेघमें होता है ॥५॥ राग रामकली [१६] जय जय जगजननि देविसुर-नर-मुनि-असुर-सेवि, मुक्ति मुक्तिदायिनि भय-हरणि कालिका। मंगल-मुद सिद्धि-सदनि, पर्वशर्वरीश-वदनि, ताप-तिमिर-तरुण तरणि-किरणमालिका