३०७ विनय-पत्रिका पड़ा है), परन्तु अब भी यह शिक्षा सुन ॥ १ ॥ जैसे दर्पणमें मुखका प्रतिबिम्ब दीख पड़ता है, पर वह मुख वास्तवमें दर्पणके अंदर नहीं होता, (वैसे ही ये माता, पिता, पुत्र और स्त्री सेवा करते हुए भी अपने नहीं हैं। मायारूपी दर्पणके साथ तादात्म्य होनेसे ही इनमें अपना भाव दीखता है)॥२॥ (संसारका सम्बन्ध तो खार्थका है ) जैसे तिलोंमें फूल रख-रखकर उन्हें सुगन्धमय बनाते हैं किन्तु तेल निकाल लेनेपर खलीको व्यर्थ समझकर फेंक देते हैं, वैसे ही सम्बन्धियोंकी दशा है ( अर्थात् जबतक स्वार्थ साधन होता है तबतक सगी रहते हैं और सम्मान करते हैं फिर कोई बात भी नहीं पूछता)। इस पृथ्वीपर ऐसे खार्थी भरे पडे हैं जिनका मन काला है, और शरीर सफेद है ॥ ३॥ तूने कितने मित्र बनाये, कितने बना रहा है और कितने अभी बनायेगा; किन्तु श्रीरघुनाथ जी-जैसा प्रेमको (सदा एकरस) निभानेवाला मित्र कभी कोई मिलनेका ही नहीं ॥४॥ अरे ! जिस (श्रीभगवान् ) के कारण ही सारे नाते सच्चे प्रतीत होते हैं,उसके साथ तूने (आजतक) कभी पहचान ही नहीं की। इसीलिये तू अभीतक इस तत्त्रको नहीं समझ पाया कि ( वास्तविक) लाभ क्या है और हानि क्या है।॥५॥ जिन्होंने मिथ्या (जगत् ) को सत्य और सत्य (परमात्मा) को मिध्या (असत्) मान रक्खा है, उनमे ऐसा कौन है जो अपने यथार्थ कल्याणका नाश करके ( संसारसे) नहीं चला गया, नहीं जा रहा है और नहीं जायगा (सारांश, ऐसे मूढ़ जीव बिना ही परमात्माको प्राप्त किये व्यर्थ ही मनुष्य-जीवनको खो देते हैं)॥६॥ वेदोंने कहा है और विद्वान् भी कहते हैं तया मैं भी पुकारकर कह रहा हूँ, कि तुलसीके खामी श्रीरघुनाथजी हीसच्चे हितू हैं। तूतनिक अपने हृदयके नेत्रोंसे देख॥७॥
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