विनय-पत्रिका देवी स्तुति राग मारू [१५] दुसह दोष-दुख दलनि, करु देवि दाया। विश्व-मूलाऽसि, जन-सानुकूलाऽसि, कर शूलधारिणि महामूल- माया ॥१॥ तडित गर्भाङ्गसर्वाङ्गसुन्दर लसत. दिव्यपटभव्य भूषण विराजै। बालमृग-मंजुखंजन-विलोचनि चन्द्रवदनि लखि कोटि रतिमार लाजै ॥२॥ रूप-सुख-शील-सीमाऽसिः भीमाऽसि, रामाऽसि, वामाऽलि वर बुद्धि बानी। छमुख-हेरम्व-अंबासि,जगदंविके,शंभु-जायासिजय जय भवानी ॥ चंड-भुजदंड-खंडनि, विहंडनिमहिषामुंड-मद-भंग कर अंगतारे । शुंभ निःशुभ कुम्भीशरण-केशरिणि क्रोच वारीश अरि-बूंदबोरे॥ निगम-आगम-अगम गुर्वि ! तव गुन-कथन, उर्विधर करत जेहि सहसजीहा देहि मा, मोहि पन प्रेम यह नेम निज. राम घनश्याम तुलसी पपीहा ॥५॥ भावार्थ-हे देवि ! तुम दुःसह दोष और दुःखोंको दमन करने- वाली हो, मुझपर दया करो। तुम विश्व-ब्रह्माण्डकी मूल (उत्पत्ति- स्थान ) हो, मक्तोंपर सदा अनुकूल रहती हो, दुष्टदलनके लिये हाथमे त्रिशूल धारण किये हो और सृष्टिकी उत्पत्ति करनेवाली मूल ( अव्याकृत ) प्रकृति हो ॥१॥ तुम्हारे सुन्दर शरीरके समस्त अङ्गों में
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