विनय-पत्रिका विषम कहार मार-मद-माते चलहिं न पाउँ बटोरारे। मंद विलंद अभेरा दलकन पाइय दुख झकझोरा रे॥ ३॥ काँट कुराय लपेटन लोटन ठावहिं ठाउँ वझ ऊ रे। जस जस चलिय दूरितस तस निज वास नभेटलगाऊरे॥ ४ ॥ मारग अगम, संग नहिं संवल, नाउँ गाउँ कर भूला रे। तुलसिदास भव-त्रास हरहु अब, होहु राम अनुकूला रे ॥ ५ ॥ भावार्थ-अरे भाई ! राम-राम, राम-राम कहते चलो, नहीं तो कहीं ससारकी बेगारमें पकड़े जाओगे तो फिर छटना अत्यन्त कठिन हो जायगा ( राजाकी बेगारसे दो-चार दिनोंमें छटा जा सकता है, पर संसारका जन्म-मरणका चक्र तो ज्ञान न होनेतक सदा चलता ही रहेगा यदि राम-राम जपता चला जायगा, तो मायाजन्य विषयरूपी शत्रु तुझे वेगारमें न पकड़ सकेंगे। क्योंकि रामके दासंपर रामकी माया नहीं चलती)॥१॥ कुटिल कर्मचन्द ( हमारे पूर्व जन्मकृत पापकों के प्रारब्ध ) ने बिना ही मोलके ( संसार-चक्रकी कर्मानुसार स्वाभाविक गतिके अनुसार ) ऐसा बुरा खटोला ( भजन- हीन तामसप्रधान मनुष्य-शरीर ) हमें दिया है कि जिसके पुराना तो बॉस ( अनादिकालीन अविद्या-मोह ) लगा है, जिसके साज सब अंट-संट हैं, (चित्तकी तामस विषयाकार वृत्तियाँ हैं, जिनके कारण से बरे कर्म होते हैं-मनुष्य कुमार्गमें जाता है) जो सड़ा हुआ तिकोन है ( केवल अर्थ, काम और सकाम धर्मकी प्राप्तिमें ही लगा हुआ है, जिसे मोक्षका ध्यान ही नहीं है )॥२॥ जिसके ( उठाकर चलनेवाले) कहार विषम हैं और कामके मदमें मतवाले हो रहे हैं (शरीरको चलानेवाली पाँच इन्द्रियाँ हैं, कहारोंकी जोडी होती न तामसप्रधान विद्या-मोह) लगा हु, कारण
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