विनय-पत्रिका [१८८] मैं तोहिं अब जान्यो संसार। वाँघि न सकहिं मोहि हरिके चल, प्रगट कपट-आगार ॥१॥ देखत ही कमनीय, कछू नाहिंन पुनि किये विचार। ज्यों कदलीतरु-मध्य निहारत, कबहुँ न निकसत सार ॥ २॥ तेरे लिये जनम अनेक मैं फिरत न पायों पार। महामोह-मृगजल-सरिता महँ बोरयो हो वारहिं वार ॥ ३॥ सुनु खल! छल-पल कोटि किये बस होहिं न भगत उदार। सहित सहाय तहाँ बसि अव, जेहि हृदय न नंदकुमार ॥ ४॥ तासो करहु चातुरी जो नहिं जानै मरम तुम्हार । सो परि डरै मरै रजु-अहि त, बूझै नहिं व्यवहार ॥ ५ ॥ 'निज हितसुनुसठ!हठन करहि,जो चहहि कुसल परिवार। तुलसिदास प्रभुके दासनि तजि भजहि जहाँ मद मार ॥ ६ ॥ भावार्थ-अरे (मायावी) ससार ! अब मैंने तुझे यथार्थ जान लिया, तू प्रत्यक्ष ही कपटका घर है, पर अब मुझे भगवान्का बल मिल गया है, इससे तू ( अपने कपटजालमें ) मुझको नहीं बाँध सकता (. परमात्माके बलका आश्रय लेते ही परमात्माकी मायासे बिना, हुआ संसार सर्वथा मिट गया, इसलिये अब मैं संसारके मायावी, फंदेमें नहीं आ सकता) ॥१॥ तू देखनेमात्रको ही सुन्दर है, पर विचार करनेपर तो कुछ भी नहीं है, वस्तुतः तेरा अस्तिल ही नहीं है। जैसे केलेके पेडको 'देखो, उसमेंसे कभी गूदा निकलता ही नहीं ( कितना' ही छीलो, छिलका-ही-छिलका निकलता जायगा । यही दशा ससारकी है)॥२॥ अरे, तेरे लिये मैं अनेक जन्मों में भटकता फिरा, अनेक योनियों में गया, पर तेरा पार नहीं
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२९७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।