३०० विनय-पत्रिका हृदयमें हार मानकर डर जाता हूँ (प्रार्थना करनेका साहस ही नहीं रह जाता) ॥१॥ हे हरे। जिस साधनसे आप मनुष्यको दास जानकर उसपर कृपा करते हैं उसे तो मैं हठपूर्वक छोड रहा हूँ। और जहाँ विपत्तिके जालमें फंसकर दिन-रात दुःख ही मिलता है, उसी (कु) मार्गदर चला करता हूँ ॥२॥ यह जानता हूँ कि मन, वचन और कर्मसे दूसरोंकी भलाई करनेसे संसार-सागरसे तर जाऊँगा, पर मैं इससे उलटा ही आचरण करता हूँ, दूसरोंके सुखको देखकर बिना ही कारण (ईर्ष्याग्निसे) जला जा रहा हूँ॥ ३ ॥ वेद-पुराण सभीका यह सिद्धान्त है कि खूब दृढ़तापूर्वक सत्संगका आश्रय लेना चाहिये, किन्तु मैं अपने अभिमान, अज्ञान और ईर्ष्याके वश कभी सत्संगका आदर नहीं करता, मैं तो संतोंसे सदा द्रोह ही किया करता हूँ॥४॥ (बात तो यह है कि ) मुझे सदा वही अच्छा लगता है, जिससे संसार-सागरहीमें पडा रहूँ। फिर हे नाथ ! आप ही कहिये मैं किस बलसे ससारके दुःख दूर करूँ ? ॥५॥ जब कभी आप अपने दयालु खभावसे मुझपर पिघल जायँगे तभी मेरा निस्तार होगा नहीं तो नहीं। क्योंकि तुलसीदासको और किसीका विश्वास ही नहीं है, फिर वह किसलिये (अन्यान्य साधनोंमें) पच-पचकर मरे ॥६॥ [१८७ ] ताहि ते आयो सरन सवेरें। ग्यान विराग भगति साधन कछु सपनेहुँ नाथ ! न मेरें ॥१॥ लोभ-मोह-मद-काम-क्रोध रिपु फिरत रैनि-दिन धेरै। तिनहिं मिले मन भयो कुपथ-रत, फिरै तिहारेहि फेरें ॥२॥ दोष-निलय यह विषय सोक-प्रद कहत संत श्रुति हेरें।
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२९५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।