पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२९३

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विनय-पत्रिका २९८ जाकी सरन जाइ कोविद दारुन त्रयताप वुझावत । तहूँ गये मद मोह लोभ अति, सरगहुँ मिटत न सावत ॥ ४॥ भव-सरिता कहें नाउ संत, यह कहि औरनि समुझावत । हो तिनों हरि! परम वैर करि, तुम सो भलो मनावत ॥५॥ नाहिन और 'ठौर मो कह, ताते हटि नातो लावत। । राखु सरन उदार-चूडामनि ! तुलसिदास गुन गावत ॥ ६॥ ___ भावार्थ-हे हरे ! मुझे ( आपका ) दास कहलानेमें लज्जा भी नहीं आती। जो आचरण आपको अच्छा लगता है, उसे मैं बिना किसी विचारके छोड देता हूँ। ( सतोंके आचरण छोड़ देनेमें मुझे पश्चात्तापतक भी नहीं होता ! इतनेपर भी मैं आपका दास बनता हूँ) ॥१॥ मुनिगण जिसे सब प्रकारकी आसक्ति छोड़कर भजते हैं, जिसके लिये जप, तप और यज्ञ करते हैं, उस प्रभुको मुझ-जैसा मूर्ख, महान् दुष्ट और पापी कैसे पा सकता है ? ॥ २॥ भगवान् तो विशुद्ध हैं और मेरा हृदय पापपूर्ण महामलिन है, मुझे यह असमञ्जस जान पड़ता है। जिस तालाबमें कौए, गीध, बगुले और सूअर रहते हैं वहाँ हंस क्यों आने लगे ? भाव यह कि मेरे काम, क्रोध, लोभ, मोहभरे मलिन हृदयमें भगवान् नहीं आयेंगे। वह तो उन्हीं मुनियोंके हृदय मन्दिरमें बिहार करेंगे, जिन्होंने निष्काम कर्म, वैराग्य, भक्ति, ज्ञान आदि साधनोंद्वारा अपने हृदयको निर्मल बना लिया है ॥३॥ जिन (तीर्थों ) की शरणमें जाकर ज्ञानके साधक पुरुष सासारिक तीनों कठिन तापोंको बुझाते हैं, वहाँ भी जानेपर मुझे तो अहंकार, अज्ञान और लोभ और भी अधिक सतावेंगे, क्योंकि सवतियाडाह स्वर्गमें भी नहीं छूटता, वहाँ भी साथ, लगा फिरता है।॥ ४ ॥,मैं