विनय-पत्रिका [१८२ ] नाथ ! गुनगाथ सुनि होत चित चाउ-सो। राम रीझिबेको जानौं भगति न भाउ सो॥१॥ करम, सुभाउ, काल ठाकुर न ठाउँ सो। सुधन न, सुतन न, सुमनः सुआउ सो ॥२॥ जाँचौँ जल जाहि कहै अमिय पियाउ सो। कासों कहीं काहू सो न बढ़त हियाउ-सो॥३॥ वाप! बलि जाउँ, आप करिये उपाउ सो। तेरे ही निहारे परै हारेहू सुहाउ-सो॥४॥ तेरे ही सुझाये सूझै असुझ सुझाउ सो। तेरे ही वुझाये बूझै अवुझ बुझाउ सो ॥५॥ नाम-अवलंबु-अंबु दीन मीन-राउ-सो। प्रभुसो बनाइ कहाँ जीह जरि जाउ सो ॥६॥ सव भाँति बिगरी है एक सुवनाउ-सो। तुलसी सुसाहिहिं दियो है जनाउ सो॥७॥ भावार्थ-हे नाथ ! आपके गुणोंकी गाथा सुनकर मेरे चित्तमें चाव-सा होता है, किन्तु हे रामजी ! जिस भक्ति और भावसे आप प्रसन्न होते हैं, उसे मैं नहीं जानता ॥ १॥ कारण कि न तो मेरे कर्म अच्छे हैं, न खभाव उत्तम हैं, और न समय अच्छा है ( कलियुग है ); न कोई मालिक है, न कहीं ठौर-ठिकाना है, न ( साधनरूपी ) उत्तम धन है, न सुन्दर (सेवापरायण ) शरीर है, न (परमार्थमें लगनेवाला) उत्तम मन है, और न (भजनसे पवित्र हुई) उत्तम आयु ही है । सारांश, भगवत्प्राप्तिका एक भी साधन मेरे पास
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