पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२८७

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विनय-पत्रिका २९६ पद-राग-जाग चहाँ कौसिक ज्यों कियो हो। कलि-मल खल देखि भारी भीति भियो हो ॥३॥ करम-कपीस वालि-चली, त्रास-त्रस्यो हौं। चाहत अनाथ-नाथ ! तेरी वॉह वस्यो हौं ॥४॥ महा मोह-रावन विभीषन ज्यों हयो हो। त्राहि, तुलसीस ! त्राहि तिहूँ ताप तयो हौं ॥५॥ भावार्थ-हे कृपासागर ! किसी भी तरह मेरी ओर देखो । मुझे और कहीं ठौर-ठिकाना नहीं है, एक तुम्हारा ही पक्का आसरा है ॥ १ ॥ मेरी बुद्धि हजार शिलाओंसे भी अधिक जड़ हो गयी है ( अब मैं उसे चैतन्य करनेके लिये ) और किससे कहूँ ? पत्थरोंको ( तुम्हारे सिवा और ) किसने मुक्त किया है?॥ २॥ जिस प्रकार महर्षि विश्वामित्रने ( तुम्हारी देख-रेखमें निर्विघ्न ) यज्ञ किया था, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे चरणोंमें प्रेमरूपी एक यज्ञ करना चाहता हूँ। किन्तु कलिके पापरूपी दुष्टोको देखकर मैं बहुत ही भयभीत हो रहा है। (जैसे मारीच, ताड़का आदिसे तुमने विश्वामित्रके यज्ञकी रक्षा की थी वैसे ही इन पापोंसे बचाकर मुझे भी चरणकमलोंका प्रेमी बना लो)॥ ३ ॥ कुटिल कर्मरूपी बंदरोंके बलवान् राजा बालिसे मैं बहुत डर रहााहूँ, सो हे अनाथोंके नाथ ! ( जैसे तुमने बालिको मारकर सुग्रीवको अभय कर दिया था, उसी प्रकार ) मैं भी आपकी बाहकी छायामें बसना चाहता हूँ ( इन कठिन कर्मोसे बचाकर आप मुझे अपनालीजिये)॥४॥ जैसे रावणने विभीषणको मारा था, उसी प्रकार मुझे भी यह महान् मोह मार रहा है। हे तुलसीके खामी ! मैं संसारके तीनों तापोंसे जला जा रहा हूँ, मेरी रक्षा करो, रक्षा करो ॥५॥