पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२८५

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विनय-पत्रिका साहिब सरनपाल सवल न दूसरो। तेरो नाम लेत ही सुखेत होत ऊसरो ॥२॥ वचन करम तेरे मेरे मन गई हैं। देखे सुने जाने मैं जहान जेते बड़े हैं ॥३॥ कौन कियो समाधान सनमान सीलाको। भृगुनाथ सो रिषी जितैया कौन लीलाको ॥४॥ मातु-पितु-बन्धु-हित लोक-चेदपाल को। बोलको अचल, नत करत निहाल को ॥५॥ संग्रही सनेहवस अधम असाधुको । गीध सबरीको कही करिहै सराधु को ॥ ६॥ निराधारको अधार, दीनको दयालु को। मीत कपि-केवट-रजनिचर-भालु को ॥ ७॥ रंक, निरगुनी, नीच जितने निवाजे हैं। महाराज ! सुजन-समाज ते विराजे हैं॥८॥ साँची विरुदावली न बदि कहि गई है। " सीलसिंधु ! ढील तुलसीकी बेर भई है॥९॥ भावार्थ-हे नाथं ! बलिहारी । एक बार मेरी ओर देखकर मुझे अपना लीजिये । हे श्रीदशरथ नन्दन आप उखड़े हुए जीवोंको फिरसे जमानेवाले हैं ॥१॥ आपके समान कोई दूसरा शरणागतोका पालनेवाला सर्वशक्तिमान् खामी नहीं है। आपका नाम लेते ही ऊसर खेत भी उपजाऊ हो जाता है । भाव यह कि जिनके भाग्यमें सुखका लेश भी नहीं है वे भी आपके नामके जपसे भक्ति ज्ञानको प्राप्तकर परम आनन्द लाभ करते हैं ॥ २॥ आपके वचन और कर्म मेरे मनमें गड गये हैं ( स्थान-स्थानपर दीनोंके उद्धारकी प्रतिज्ञा और